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________________ साधना के महापथ पर | ६९ स्वीकृति मांग रहे थे। उन्हें लग रहा था, इस भय-भैरव स्थान में अमय की उत्कृष्ट साधना तो होगी ही, साथ ही उस कर यक्ष का भी उद्धार हो सकता है। इस प्रकार एक पथ, दो काज सिद्ध हो सकते हैं। महावीर को सब कुछ जान लेने पर भी अविचल एवं मुदित देखकर गांववासियों ने कहा- "इस पर भी देवार्य मृत्यु को सिर पर लेकर ठहरना चाहें तो हम मना नहीं करते ।" महावीर प्रसन्नतापूर्वक यक्षमन्दिर में प्रविष्ट हुए तथा एक शुद्ध स्थान देखकर एकाग्र ध्यान-मुद्रा में स्थिर हो गए। जैसे ही अन्धकार की काली चादर पृथ्वी पर फैली, शूलपाणि यक्ष हुंकारता हुआ अपने स्थान पर आया। एक अज्ञात मनुष्य को अपने स्थान पर निर्भय खड़ा देखकर वह आग-बबूला हो गया। पहले उसने एक भयंकर हुंकार की। दिशायें कांप गई, दीवारें गूंज उठीं, पर महावीर का एक रोम भी चलायमान नहीं हुआ। यह देखकर यक्ष के क्रोध में ज्वार आ गया-"यह धृष्ट मानव मेरी शक्ति का अनादर करने, मुझे चुनौती देने यहां आया है, तो इसे धृष्टता का, इस दुःमाहस का मजा भली-भाँति चखा देना चाहिये।" और प्रलयकाल के तूफान की तरह उफनता हुआ शूलपाणि भयंकर अट्टहास कर रौद्र नृत्य करने लगा। उसके हाथों में भयकर शूल चमक रहा था बिजली की भांति । यह भयावह काल-रात्रि ! प्राणों को डसने वाली अपार शून्यता! सांय-साय करता हुआ खण्डहरों का निर्जन एकान्त ! पहले ही भयानक था । यक्ष के रौद्र अट्टहास से तो भय की घनघोर वृष्टि होने लगी। सामान्य मनुष्य के तो प्राण वहीं घुट जाते, पर अभय के देवता महावीर सहस्रपल की प्रस्तर-प्रतिमा की भांति अविचल, अकंपित खड़े रहे, नामान पर दृष्टि स्थिर किये । जिसके अन्तर्तम में अचल आत्म-श्रद्धा जग गई हो, उसे वध, बन्धन, भय, शोक. वेदना और प्रलोभन के द्वन्द्व क्या कभी चंचल बना सकते हैं ? महावीर को स्थिरता से खीझा हुआ यक्ष मदोन्मत्त हाथी की तरह विफर गया। पिशाचों की सेना खड़ी कर क्रूर अट्टहास के साथ महाकाल का रौद्र नत्य करने लगा, शेषनाग की तरह विष उगलती तूफानी फुकारें भरने लगा। विचित्र. विचित्र रूप धारण कर महावीर को उत्पीड़ित करने लगा। कभी मदोन्मत्त हाथी की भांति परों से रौंदता, कभी गेंद की तरह आकाश में उछालता, कभी बिच्छ की की तरह तीव्र जहरीले डंक मारता, कभी शिकारी कुत्तों की तरह मांस नोंच डालता और कभी जहरीली चींटियों की भांति पूरे शरीर को काट डालने की चेष्टा करता। यक्ष ने सोचा होगा-इन प्राणान्तक पीड़ाओं से शायद महावीर तिलमिला उठेंगे, पर हुआ उल्टा हो । महावीर स्थिर रहे और हार खाया हुआ यक्ष दांत पीस कर रह
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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