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________________ साधना के महापथ पर | ६५ वर्धमान ने कभी उन्हें दूर हटाने की इच्छा तक नहीं की, वे सदा अनाकुल एवं देहाध्यास से मुक्त रहे । लगभग चार मास तक उन्हें यह वेदना सहनी पड़ी। ___अनेक मनचले युवक-युवतियां उनके निकट आते, शरीर से फूटती फूलों की मधुर महक को देखकर मुग्ध हो उनके पीछे-पीछे घूमते, उनके देवोपम सहज सौन्दर्य पर मुग्ध युवतियां शरीर-स्पर्श करने की चेष्टा करतीं, करुण काम-याचनाएँ करतीं, हाव-भाव एवं विकार पूर्ण म भंगिमाओं के द्वारा महावीर के मन को चचल बनाने की चेप्टाए करतीं और जब वे अपने प्रयत्न में असफल हो जाती तो तीखी झंझलाहट के साथ उन्हें उत्पीड़ित करने लगतीं, कभी-कभी उन पर प्रहार भी करने लगतीं । महावीर दोनों ही स्थितियों में स्थिर व देहभाव से मुक्त रहते ।' अप्रतिबद्ध विहारी कर्मारग्राम से विहार कर भगवान कोल्लागसग्निवेश में गये, छट्ठ तप का पारणा कर फिर आगे चल पड़े । इस दीर्घयात्रा में रुकना तो कहीं था ही नहीं। चलते-चलते प्रभु मोराकसग्निवेश के बाहर एक आश्रम में पहुंच गये। यह आश्रम दुईज्जतक नामक तापसों का था और वहां का कुलपति महाराज सिद्धार्थ का मित्र था । श्रमण महावीर को आश्रम की ओर आते देख कर कुलपति ने उन्हें पहचान लिया। प्रसन्न होकर वह उठा और महावीर का स्वागत किया। हाथ बढ़ा कर महावीर ने भी पूर्व परिचय प्रदर्शित किया। दूसरे दिन जब महावीर आगे चलने को हुए तो आश्चर्यचकित कुलपति ने कहा-"कुमार ! यह क्या ? कुछ समय तक तो यहां ठहरते । यह आश्रम किसी दूसरे का नहीं, अपना ही समझिये।" महावीर तो अनगार थे, अपनी आत्मा के सिवाय उनका अपना कहीं कुछ था ही नहीं। फिर वे ठहरे एकान्तप्रिय, पूर्व-परिचय-त्यागी ! रुकने का आग्रह जब स्वीकार नहीं किया तो कुलपति ने कहा - "खैर, अभी न रुके तो कोई बात नहीं, किन्तु आगामी वर्षावास तो यहीं बिताना होगा, मेरा हार्दिक आग्रह है।" । स्वीकृति-सूचक संकेत देकर महावीर आगे चल पड़े । शीत एवं उष्ण-ऋतु के लगभग सात मास छोटे-छोटे गांवों, जंगलों एवं खण्डहरों में बिताकर वर्षावास के लिये पुन: दुईज्जतक आश्रम में आ गये । कुलपति ने स्नेहपूर्वक महावीर को एक झोंपड़े में ठहरा दिया। १ घटना व वि० पू० ५१२ । आचारांग हार
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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