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________________ श्रमण वर्धमान का साधक-जीवन-इस युग (अवसर्पिणीकाल) के श्रेष्ठतम साधक का जीवन था। उस जीवन की अनन्त गरिमा और असीम उच्चता को शब्दों की सीमा में बांधना सागर की विशालता को भुजाओं द्वारा नापने जैसा बालप्रयत्न होगा। उस दिव्य-भव्य, शौर्य-सम्पन्न एवं संयमी जीवन की एक छोटी-सी झांकी अगले पृष्ठों में पाठक को मिलेगी, पर उसमें पूर्णता का नहीं, कुछ अंशों का ही दर्शन होगा। श्रमण महावीर के जीवन की समग्र-साधना को उपमाअलंकार द्वारा व्यक्त करने का एक ऐतिहासिक प्रयत्न कल्पसूत्र में किया गया है, उससे अधिक सुन्दर, भव्य और कलात्मक अभिव्यक्ति और कौन कर सकता है ? अतः कल्पसूत्र की इक्कीस अलंकृतियां यहाँ प्रस्तुत हैं१ कांस्यपात्र की भांति उनका जीवन निर्लेप था। २ शंख की भांति उनका हृदय निरंजन (नीराग-उज्ज्वल रागमुक्त) था। ३ जीव की भांति उनकी जीवनचर्या अप्रतिहत (बे-रोक) थी। ४ आकाश की भांति वे सदा पराश्रयरहित (स्वावलम्बी) थे। ५ पवन की भांति वे अप्रतिबद्धविहारी थे। ६ शारदीयजल - शरदऋतु के जल की भांति उनका अन्तः करण निर्मल, स्वच्छ एवं सदा शीतलता-युक्त था। ७ कमलपत्र की भांति वे अलिप्त व अनासक्त रहते थे। ८ कच्छप की भांति वे जितेन्द्रिय एवं संयमी थे। ६ गेंडे के सींग की भांति वे सदा एकाकी (बाह्य एवं अन्तर दोनों दृष्टियों से ही) रहते थे।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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