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________________ ४६ ] तीर्थंकर महावीर यौवन के द्वार पर पहुंचते-पहुंचते वर्धमान गम्भीर चिंतक, साथ ही शान्ति, समता एवं करुणा की सजीवमूर्ति के रूप में समाज में चमक उठे थे ! माता-पिता ने महावीर के विवाह की योजना बनाई । गृही-जीवन के रंगीन स्वप्न उनकी कल्पना में थिरकने लगे थे। वे चाहते थे कि वर्धमान की यह अति गम्भीरता और अति शान्तिप्रियता टूटनी चाहिये और इसका सहज मनोवैज्ञानिक उपाय है विवाह । योवन का स्वतन्त्र उपभोग । वे भूल गये थे, वर्धमान इसी जन्म में वीतराग तीर्थंकर बनने वाले हैं, उनकी वृत्ति में न मोह है न राग, न भोग की आकांक्षा और न किसी प्रकार का भौतिक आकर्षण। उनके अन्दर तो अनन्तकरुणा, निःस्पृहता, वैराग्य, असीम समता का सागर लहरा रहा है। राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला ने एक दिन एकान्त में गम्भीर विचारविनिमय कर निश्चय किया कि कुमार वर्धमान को अब विवाह बन्धन में बाँध देना चाहिये, ताकि हमारे पश्चात् भी वे इस गृहस्थ-जीवन की गाड़ी को यथावत् चलाते रहें। त्रिशला ने अनेक राजकुमारियाँ देखीं, उनमें महासामन्त समरवीर की कन्या 'यशोदा' उन्हें कुमार के लिये सर्वथा योग्य लगी। यशोदा सुन्दर भी थी, धर्म एवं राजनीति का उचित ज्ञान भी था उसे । माता-पिता ने वर्धमान से यशोदा के साथ पाणिग्रहण करने का प्रस्ताव किया, पर वे टालते रहे । किन्तु जब बार-बार के आग्रह को ठुकराने पर त्रिशला की आँखें भर आई, उसकी मुखकान्ति म्लान हो गई तो, वर्धमान ने आग्रह की डोर ढीली छोड़ दी। माता के कोमल हृदय को दुखाना उन्हें किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं था । वे मौन हो गये। इस मौन को स्वीकृति मानकर त्रिशला ने विवाह की तैयारियां शुरू कर दी और एक दिन यशोदा के साथ राजकुमार वर्धमान का पाणिग्रहण कर दिया गया।' यशोदा को पत्नी रूप में स्वीकारने में भी महावीर की नारी जाति के प्रति असीम अनुकम्पा ही मुख्य कारण थी; क्योंकि नारी को धन-धान्य की भांति ही एक परिग्रह माना जाता था, इससे अधिक कुछ नहीं। महावीर उसे धर्मसहायिका के रूप में प्रतिष्ठा देना चाहते थे। यदि वे नारी से दूर भागते रहते तो शायद जनता इस तथ्य को सरलता से स्वीकार नहीं करती। विवाह के पश्चात् यशोदा ने स्वयं को महावीर के प्रति सर्वथा समर्पित ही नहीं कर दिया, किन्तु उनकी धर्म-साधना में भी सदा सर्वात्मभाव से सहयोग दिया और नारी पुरुष को धर्म-सहायिका होती है, इस तथ्य को प्रत्यक्ष सिद्ध कर दिया। १ दिगम्बर-परम्परा के आचार्यों ने महावीर के विवाह-सम्बन्ध का निषेध करके उन्हें आजन्म ब्रह्मचारी बताया है।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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