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________________ ३६ | तीर्थंकर महावीर कि वह अचानक मूर्छित हो गई। परिचारिकाओं ने तुरन्त उपचार किये, त्रिशला कुछ देर तक गुमसुम-सी बैठी रही; उससे बोला नहीं गया। मन की पीड़ा आंखों में आँसू बन कर झलक आई । समाचार मिलते ही सिद्धार्थ उल्टेपांव चले आये। आमोदप्रमोद और गाना-बजाना बंद हो गया। कुछ क्षण तक सर्वत्र सन्नाटा-सा छाया रहा, फिर त्रिशला अचानक फूट-फूटकर रोने लगी। कुछ देर रो लेने व आंसू बहा लेने के बाद मन हलका हुआ, तो वह बिलखती हुई बोली-"मेरे उदरस्थ शिशु को सहसा क्या हो गया है, हे भगवान् ! यह न हिलता है, न चलता है। उसकी गति बन्द-जैसी हो गई है ?" यह सुनते ही सिद्धार्थ भी स्तब्ध हो गये । जैसे किसी ने कलेजे पर बर्फ की सिल्ली रख दी हो। परन्तु तुरन्त ही संभल गये और रानी को धीरज बंधाने लगे। अचानक गर्भस्थ शिशु की गति चाल हो गई। रानी की आँखों में ज्योति मा गई। वह हर्षविभोर होकर बोल उठी--- "कुछ नहीं ! सब ठीक है। ये मंगल गीत बंद क्यों कर दिये। जाओ, खुशी के नगाड़े बजाओ, मेरा बहुमूल्य रत्न सुरक्षित है, सब ठीक-ठाक है।" दर्शकों को लगा जैसे गर्भस्थ शिशु ने मां के साथ आंखमिचौनी खेली हो। कथाशिल्प की दृष्टि से भी यह घटना बड़ी रोचक है। कवियों और कथा लेखकों ने इस पर एक सुरम्य सात्विक कल्पना की रंगीन कूची फेरकर और भी उभार दिया है। एक कवि ने उत्प्रेक्षा की है- “महावीर गर्भ में भी मोह पर विजय पाने हेतु प्रयत्नशील हुए होंगे, और इसीलिए कुछ देर तक अपने शरीर को स्थिर कर ध्यानयोग के अभ्यास में लीन हो गए होंगे। किन्तु माता के करुण विलाप ने उनका ध्यान भंग कर डाला और वे पुनः पूर्वस्थिति में आ गये।" ___ कल्पसूत्र में आचार्य ने लिखा है-"गर्भस्थ महावीर के मन में अनुकम्पा जगी कि मेरे हलन-चलन से माता को कष्ट होता होगा। अतः माता के सुख के लिये मुझे अपनी गति को नियन्त्रित कर लेना चाहिए और वे स्थिर-निश्चल हो गये, जैसे कोई योगी ध्यान-योग में।" किन्तु माता के मन पर उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। शिशु का हलन-चलन बन्द होना, उसे भयानक अपशकुन लगा और वह मोहाकुल हो विलाप करने लग गई। माता का विलाप और शोक पुत्र से देखा नहीं गया। सोचा, कहीं लाभ के बदले हानि न हो जाय, प्रतिकूल स्थिति में अमृत भी जहर का काम कर जाता है । अतः पुत्र ने पुनः हलन-चलन प्रारम्भ कर दिया ।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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