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________________ २८२ | तीर्षकर महावीर पहा दुमस पुप्फेस भमरो माविया रसं। नप पुष्कं किलामेह, सो य पोणेह अप्पयं ।। -दश० १२ जैसे - प्रमर फूलों से रस ग्रहण करके अपना निर्वाह करता है, किंतु फूलों को किसी प्रकार की भी क्षति नहीं पहुंचाता। उसीप्रकार साधु भिक्षावृत्ति से इस प्रकार अपना निर्वाह करता है कि गृहस्थ पर किसी भी प्रकार का भार न पड़े, उसे कोई कष्ट न हो। अलोले न रसे गिडे जिन्माते अमुन्छिए । न रसाए जिन्ना, जवणट्ठाए महामुनी ।। -उत्त० ३५१७ महामुनि-लोलुपता से रहित, रस (स्वाद) में आसक्त न होता हुआ, जिह्वाइन्द्रिय का संयम करे और संग्रह की मूर्छा से मुक्त रहे । वह भोजन स्वाद के लिए नहीं, किंतु संयम यात्रा के निर्वाह के लिए करे। __ महु घर्ष व जिन्य संजए। -दश. १९७ साधु को सूखा-रूखा, तीखा या मीठा जो शुद्ध आहार मिले, उसे मधु-धृत (षी-शक्कर) के समान प्रसन्न भाव से खाये । अनुप्रेक्षा (अध्यात्म-चिन्तन) मावणा जोगसुखप्पा जले नावा व आहिया । नावा व तोरसम्पन्ना सय्य दुक्खा तिउट्टा ॥ -सूत्र०१॥१५६ जिस साधक की अन्तर आत्मा भावना योग से शुद्ध हो गई है, वह जल में नौका के समान है । अर्थात् जैसे नौका अथाह जल को तैरकर पार पहुंच जाती है, वैसे ही वह साधक संसार सागर को (भावना योग द्वारा) तैर जाता है। बोधिदुर्लभ भावना संतुमिह किन पुन्मह, संवोही बलु पेच दुल्लहा । मोहवणमति राहो नो सुलभं पुगरावि गोवियं । -सूत्र. १२२।११ समझो ! समझते क्यों नहीं हो! अगले जन्म में पुनः सद्बोषि प्राप्त होना दुर्लभ है। बीती हुई रातें लौटकर नहीं आती, गया हुमा जीवन पुनः मिलना सुलभ नहीं है।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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