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________________ सिद्धान्त-साधना-शिक्षा | २७३ श्रमण कामावर्श बासीचंबणसमाणकप्पे समतिण मणिमुत्ता लेकंधणे। -प्रश्न० २२५ कोई कुल्हाड़ी से उनके शरीर को चीर दे, अथवा चन्दन से लिप्त कर दे, दोनों के प्रति संतजन समभाव रखते हैं। इसीप्रकार तृण व मणि में, लोहे व सोने में भी वे समभाव रखते हैं। लामालामे सुहे दुषले, जीविये मरणे तहा। समो निन्दा-पसंसासु तहा माणावमाणमओ ।। -उत्त० १९९० लाभ और अलाभ में, सुख व दुःख में, जीवन व मरणमें तथा निन्दा-प्रशंसा में एवं मान-अपमान में वे मुनिजन समभाव रखते हुए एकरूप रहते हैं। निम्ममो निरहंकारो निस्संगो चत्तगारवो। समो प सम्बभूएसु तसेसु थावरेसु ।। -उत्त० १९८९ ____ संत-ममता रहित, अहंकार से मुक्त, सब प्रकार की आसक्ति (संग) से दूर, गौरव (मद) का त्याग कर त्रस एवं स्थावर सभी प्राणियों के प्रति समदृष्टि रखता है। अहिंसा सम्वं पाणा पिनाउया । सुहसाया दुक्खापरिकूला। अप्पियवहा, पियजीविणो। जोविउकामा। ससि जोषियं पियं। नाइवाएज कंचणं। -आचा० ११२।३ सब प्राणियों को अपना जीवन प्यारा है। सुख सबको अच्छा लगता है और दुःख बुरा । वध सबको अप्रिय हैं और जीवन प्रिय। सब प्राणी जीना चाहते हैं। कुछ भी हो, सबको जीवन प्रिय है। अतः किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो। आयो बहिया पास । -आचा. १३ अपने समान ही बाहर में दूसरों को भी देखो। १८
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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