SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना की पूर्व भूमिका | १५ मरीचि के नवीन वेष व सरल साधनामार्ग को देखकर लोग उससे पूछने लगे-"क्या यह आपका कोई नवीन धर्म है ?" मरोचि का हृदय सरल था, वह अपनी दुर्बलता को साधना के आडम्बर में छिपाना नहीं चाहता था। वह लोगों से कहता-'धर्म तो वही है जो भगवान ऋषभदेव ने बताया है, मैं उस कठिन साधनापथ का अनुसरण नहीं कर सकता, इसलिये ऐसा मध्यममार्ग निकाला है।" मरीचि की सरलता ने लोगों के मन में सद्भाव व आदर प्राप्त कर लिया। वह प्रभु ऋषभदेव के साथ-साथ रहने लगा। एक बार भगवान ऋषभदेव अयोध्या नगरी में आये। उपदेश सुनने के बाद चक्रवर्ती भरत ने भगवान से एक प्रश्न पूछा- "भंते ! आपने जो अनन्त ऐश्वर्य-सम्पन्न जिनदशा व तीर्थंकरपद प्राप्त किया है, क्या भविष्य में ऐसा महान पद और आध्यात्मिक ऐश्वर्य प्राप्त करनेवाला भाग्यशाली आत्मा इस सभा में और भी कोई है ?" भगवान ने भरत को संबोधित करके कहा-"भरत ! वह देखो, द्वार पर जो नवीन वेषभूषा धारण किये संन्यासी खड़ा है, जो लोगों को प्रेरित कर इस समवसरण को ओर भेज रहा है, वह तुम्हारा पुत्र मरीचि है। वह श्रमणधर्म के कठोर नियमों को पालन करने में असमर्थ है । किन्तु अपनी असमर्थता को, दुर्बलता को सरलता के साथ स्वीकार करता है और सत्य की ओर लोगों को प्रेरित करता है, वह मरीचि इसी भरत क्षेत्र में वर्धमान नाम का अंतिम तीर्थकर होगा । और उसी बीच वह त्रिपृष्ठ नाम का प्रथम वासुदेव तथा प्रियमित्र नाम का चक्रवर्ती भी होगा।" मरीचि के सम्बन्ध में यह भविष्यवाणी सुनकर भरत क हृदय में एक सहज उल्लास जग पड़ा । यह शुभ संवाद सुनाने के लिये वे मरीचि के पास आये और भावावेग में आदर पूर्वक बोले "मरीचि ! तुम धन्य हो गये । भगवान ऋषभदेव के कथनानुसार तुम इस भरतक्षेत्र में वर्धमान नाम के अंतिम तीर्थकर बनोगे । और उससे पहले वासुदेव और चक्रवर्ती का पद भी प्राप्त करोगे । सचमुच तुम्हारा भविष्य बड़ा गौरवमय है. तीन-तीन श्रेष्ठ पद प्राप्त करना वास्तव में ही महान साधना का फल है"- हर्षावेश में चक्रवर्ती ने मरीचि को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया और उसके भावी तीर्थकरत्व के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुये वन्दना की। त्रिदंड का चिह्न धारण किया। इससे मरीचि के मन की विनम्रता एवं सहज निश्छलता का दिग्दर्शन भी हो जाता है।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy