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________________ कल्याण-यात्रा | २२५ त्य में ठहरे। राजा उदयन, राजमाता मृगावती एवं जयंती आदि राजपरिवार भगवान् के दर्शनार्थ आया । हजारों नागरिकों की विशाल धर्मसभा को सम्बोधित कर भगवान् ने उपदेश दिया। प्रवचन के पश्चात् जयंती ने भगवान से कुछ प्रश्न करने की अनुमति मांगी। स्वीकृति पाकर उसने पूछा-"भगवन् ! जीव भारीपन (कर्मों से भारी) क्यों प्राप्त करता है ?" भगवान्-"हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के सेवन से, राग-द्वेषमय आचरण से, कलह करने से, दूसरों पर मिथ्या दोषारोपण करने से, चुगली करने से, असंयम में उत्साह, संयम में आलस्य करने से, परनिंदा करने से, कपटपूर्वक मिप्याभाषण करने से एवं अविवेक-अज्ञान (मिथ्यादर्शनशल्य) के कारण जीव कर्मों से भारी होता है। उक्त अठारह पापस्थानों के सेवन से आत्मा संसार में भ्रमण करता है, तथा उनकी निवृत्ति करने से संसार-परिभ्रमण को कम करता है। -"भव-सिद्धिकता (मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता) जीवों को स्वभाव से प्राप्त होती है या अवस्था-विशेष (परिणाम) से ?" "भवसिद्धिकता स्वभाव से होती है, अवस्था-विशेष से नहीं।" "क्या सब भवसिद्धिक मोक्षगामी हैं ?" "हाँ, जो भवसिद्धिक हैं, वे सब मोक्षगामी हैं।" "यदि सब भवसिद्धिक जीव मोक्ष में चले जायेंगे तो एक दिन यह संसार भवसिविक जीवों से खाली नहीं हो जायेगा ?" "नहीं ! ऐसा नहीं हो सकता।" "क्यों ?" "कल्पना करो, जैसे सर्वाकाश प्रदेशों की श्रेणि में से प्रतिसमय एक-एक प्रदेश कम करने पर भी आकाश-प्रदेशों का कमी अन्त नहीं आता, इसीप्रकार भवसिद्धिक अनादिकाल से मोक्ष प्राप्त कर रहे हैं, और अनन्तकाल तक करते रहेंगे, तथापि संसार कभी उन जीवों से रहित नहीं होगा। क्योंकि भवसिद्धिक जीव अनन्तानन्त हैं।" "भंते ! जीव का सोना अच्छा है या जागना?" । "कुछ जीवों का सोना बच्छा है, कुछ का जागना ?"
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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