SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०० | तीर्थकर महावीर नये सिद्धान्त का प्रचार कर रहे थे। बनता में इस नई बात की काफी चर्चा थी। इन्द्रभूति गौतम नगर में भिक्षा-चर्या के लिए गए तो जनता में सात द्वीप-समुद्र के सम्बन्ध में ऊहापोह सुना। वे लोटकर भगवान के पास बाये और उसकी यथार्थता के विषय में प्रश्न किया। भगवान ने कहा - "गोतम ! शिवराजर्षि का सात दीप व सात समुद्र विषयक प्रतिपादन प्रांतिपूर्ण है, इस विश्व में तो जम्बूढीप आदि असंख्य द्वीप व लवणसमुद्र बादि असंख्य ही समुद्र हैं।" भगवान् महावीर का प्रवचन जिन लोगों ने सुना, उनमें से कुछ लोगों ने शिवराजर्षि के समीप जाकर कहा-"श्रमण तीर्थकर महावीर का कथन है कि आपका सिद्धान्त मिथ्या है, विश्व में दीप-समुद्र सात नहीं, किन्तु असंख्य है।" शिवराजर्षि ने भगवान् महावीर की दिव्य ज्ञान-शक्ति के सम्बन्ध में कई बार चर्चाएं सुनी थीं, वे मानते थे-महावीर यथार्थ-भाषी हैं । उनके मन में अपने शान के सम्बन्ध मैं संशय हुमा-"क्या मेरा ज्ञान अपूर्ण है ?" इन्हीं विकल्पों में शंकाअस्त होते हुए वे विभंगज्ञान को भी खो बैठे। वे सोचने लगे "सचमुच ही महावीर का कथन सत्य होगा। उन्हें अनेक योग-विभूतियां प्राप्त है। मैं भी उन महापुरुष के निकट जाकर अपनी प्रांति दूर करूं।" श्रद्धा और जिज्ञासा जगने पर सत्य का द्वार खुले बिना नहीं रहता । शिव रावर्षि हस्तिनापुर के सहस्रामवन की ओर जैसे-जैसे बढ़ रहे थे, सत्य की सुरभि उनकी अन्तरात्मा को प्रफुल्लित कर रही थी। वे भगवान महावीर की धर्म-सभा में पहुंचे। प्रथम दर्शन में ही श्रद्धाभिभूत होकर त्रि-प्रदक्षिणा के साथ वे एक और बैठ गए। सर्वदर्शी प्रभु ने अपने प्रवचन में ही शिवराजर्षि के समस्त संशयों का निराकरण कर दिया। उनके अन्तरंग में सत्य का सहलरश्मि उदित हो गया वे श्रद्धा व संकल्प के साथ बड़े हुए बार उन्होंने नियंन्य-धर्म की दीक्षा स्वीकार कर ली। स्थविरों के सानिध्य में रहकर शिवराजर्षि ने पहले जानार्जन किया, फिर तपाचरण। अन्त में कर्ममुक्त होकर सिद्धति को प्राप्त हुए।' कालोदायी की तत्व-जिज्ञासा और प्रवज्या भगवान् महावीर के पास तत्त्व-पर्चा करने को प्रमुख परिव्राजक बाये, उनमें से कुछ परिवाषकों की पर्चा इन पृष्ठों पर दी जा चुकी है। समय-समय पर और । विशेष विवरण के लिए देखिये-भवती-सूख मतक ११ देशक
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy