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________________ १८४ | तीर्थकर महावीर इस प्रकार महाशतक को घर में ही अग्नि-परीक्षा के अनेक प्रसंगों से गुजरना पड़ा, पर साधना में उसका तेज निखरता ही गया। कठोर मनो-निग्रह, ब्रह्मचर्य एवं समताचरण के कारण उसकी चित्त-वृत्तियां अत्यन्त विशुद्ध हो गई, फलस्वरूप उसे अवधिज्ञान की प्राप्ति हुई। एक बार पुनः रेवती उसी प्रकार मद्य के नशे में चूर होकर बड़ी निर्लज्जता के साथ महाशतक के समक्ष काम-याचना करने लगी। महाशतक को ध्यान में स्थिर व मौन देखकर उसे क्रोध आ गया और विह्वलता के साथ क्रूर एवं दुष्ट वचन बोलने लगी। पत्नी के इस निर्लज्ज एवं दुष्ट व्यवहार से महाशतक के मन में क्षोम उमड़ माया, क्रोध के हल्के से आवेग में उसने पत्नी को चेतावनी देते हुए कहा"रेवती ! मैं अपने ज्ञान-बल से यह देखकर तुझे कह रहा हूं कि तुम अल्प से जीवन को यों बर्वाद क्यों कर रही हो ? आज के सातवें दिन तो तेरी मृत्यु है, तू अलस रोग से पीड़ित होकर अत्यन्त वेदना और दुर्ध्यान के साथ मृत्यु को प्राप्त होकर प्रथम नरक में उत्पन्न होगी..." इस बात की भी जरा चिता कर !" पति के मुंह से यह बात सुनते ही रेवती संत्रस्त हो गई, भय और उद्वेग से वह व्याकुल हो उठी-"हाय ! पति ने कोष में आकर मुझे शाप दे दिया।" वह चली माई, लेकिन उसका हृदय उत्पीड़ित हो रहा था। सातवें दिन अत्यन्त शोक व पीड़ा के साथ उसने प्राण छोड़ दिये । उन्हीं दिनों भगवान महावीर राजगृह में पधारे । रेवती के प्रति किये गये हृदय-वेधक कटु भाषण के सम्बन्ध में भगवान महावीर ने गणधर गौतम से कहा"यहाँ पर श्रमणोपासक महाशतक पौषधशाला में धर्मजागरणा कर रहा है। वह अपनी पत्नी के मोहजनक वचनों से सताये जाने पर कुन हो गया और बड़े ही कर्कश वचनों के साथ उसने पत्नी की तर्जना की एवं उसके हृदय को चोट पहुंचाई है। समभाव की साधना करते हुए साधक को ऐसे कटु वचन नहीं बोलने चाहिए, भले ही वे सत्य हों। क्योंकि सत्य में हृदय की कोमलता और करुणाशीलता भी अनिवार्य है। अतः तुम जाकर उसे कहो, वह अपनी भूल का प्रायश्चित करे।" भगवान महावीर का संदेश पाकर इन्द्रभूति महाशतक के पास गये और बोले-"देवानुप्रिय ! तुमने अपनी पत्नी को जो दुर्वचन कहे, जिनसे उसके हृदय दीक्षा का इकतीसा वर्ष (कि. पृ. ४०१)।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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