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________________ कल्याण-यात्रा | १७५ ने अपनी अपार संपत्ति की मर्यादा की और आनन्द की तरह गृहस्थधर्म स्वीकार किया। कामदेव परम निष्ठावान श्रावक था। अपार समृद्धि के बीच भी वह बड़ा त्याग एवं तपःप्रधान जीवन जीता था। आनन्द की भांति ही जीवन के अंतिम समय में वह घर-व्यापार आदि से निवृत्त होकर पौषधशाला में भगवान् महावीर द्वारा कथित धर्म-प्राप्ति के अनुसार जीवन बिताने लगा। एक बार कामदेव पौषध करके धर्म-जागरण कर रहा था। मध्यरात्रि में घोर अंधकार के समय एक मायावी देव भयानक पिशाच रूप धारण कर हाथ में नंगी तलवार लिए उसके समक्ष आया और बोला- "कामदेव ! तू मोक्ष की मृगतृष्णा में अपने जीवन को बर्वाद कर रहा है । तू मूर्ख है। मेरे कहने से तू इस धर्म के पाखंड को छोड़ दे और आराम से भोग-उपभोग का आनन्द लूट ! यदि मेरी बात स्वीकार नहीं करेगा तो मैं इसी तलवार से तेरे टुकड़े-टुकड़े कर डालूंगा।" कामदेव अपने ध्यान में स्थिर रहा । दैत्य ने क्रोधावेश में उस पर तलवार से कर प्रहार किये। फिर भी कामदेव स्थिरता और प्रसन्नता के साथ धर्म-चितन में लीन रहा । दैत्य ने हाथी का रूप धारण कर भयानक कष्ट दिये । सर्प बनकर जगह-जगह डंक मारे इन भयंकर वेदनाओं में भी कामदेव विचलित नहीं हमा। उसकी अपूर्व तितिक्षा व धर्मनिष्ठा के समक्ष दैत्य परास्त हो गया। उसने दिव्य रूम धारण कर अपने दुष्कृत्य की क्षमा मांगी और उसकी अपूर्व धर्मनिष्ठा की प्रशंसा करता हुआ नमस्कार करके चला गया। प्रातःकाल भगवान महावीर चम्पा नगरी में पधारे। कामदेव भगवान के दर्शन करने गया। धर्म-देशना के बाद भगवान् महावीर ने कामदेव की ओर संकेत करके अपने श्रमण-श्रमणियों को सम्बोधित करते हुए कहा-"श्रमणोपासक कामदेव गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी अपनी धर्म-साधना में इतना निष्ठावान, तितिक्षाशील और अविचल है कि रात्रि में पिशाच द्वारा प्राणांतक पीड़ाएं दिये जाने पर भी वह चंचल व सब्ध नहीं हुआ। श्रमणो ! साधना का आनन्द समभाव में है । श्रमणोपासक कामदेव ने जो समभाव का उदाहरण प्रस्तुत किया है, वह सबके लिए अनुकरणीय है।" १ 'महावीर कपा' (गोपालदास पटेल) पृ. ३०७ के अनुसार कामदेव ने महचन्द्र के साथ ही __सोलहवें वर्षावास के बाद (वि० पू० ४६५) बंपा में गृहस्थधर्म स्वीकार किया। २ रावगृह में तीसर्वा वर्षावास करने के बाद वि. पू. ४५३
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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