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________________ कल्याण-यात्रा | १७१ भार वाहक एवं चार वाहन यात्रा करने योग्य-इस प्रकार माठ वाहनों से अधिक रखने की मर्यादा । इसी प्रकार भोगोपभोगों की छोटी-बड़ी समस्त सामग्रियों की मर्यादा करके, उसके उपरान्त रखने और उपयोग करने का त्याग किया। आनन्द ने यह समस्त मर्यादा भगवान महावीर के समक्ष प्रकट की और उसके उपरान्त वस्तु-सामग्री-सेवन का त्यागकर पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत रूप धावक के बारह व्रत ग्रहण किये । आनन्द ने सम्यक्दर्शन और सम्यगचारित्र से सम्बन्धित त्रुटियों एवं स्खलनाओं का भी परिज्ञान किया। भगवान् को वन्दना. नमस्कार करके वह अपने भवन पर आया । घर आकर आनन्द ने अपनी धर्मपत्नी शिवानंदा से आज के देव-दुर्लभ प्रसंग की चर्चा करते हुए कहा- "देवानुप्रिये ! मैंने श्रमण भगवान महावीर से धर्म का उपदेश सुना है, वह मुझे बहुत ही प्रिय तथा जीवन में शांति प्राप्त करने के लिए अत्यंत इष्ट लगा, मैंने उस धर्म को स्वीकार कर लिया है, यदि तुम भी चाहो तो भगवान् महावीर के दर्शन करो तथा उनके मुख से धर्म उपदेश सुनकर द्वादशवत रूप श्रावकधर्म ग्रहण कर सकती हो।" शिवानंदा के मन में भी धर्म-जिज्ञासा जगी, वह भी भगवान् महावीर की धर्मसभा में गई और तत्त्व-बोध को सुनकर श्रावकधर्म को ग्रहण किया। इस प्रकार आनन्द गाथापति ने भोगों की असीम आकांक्षा को त्यागकर संयम एवं साधना का मध्यम मार्ग अपनाया । अपार समृद्धि होते हुए भी उसका मनचाहा भोग नही कर, समता के द्वारा उस समृद्धि की मादकता को शांत किया। विशाल संपत्ति और असीम भोग-सामग्री की मर्यादा करके, मर्यादा से उपरान्त समस्त साधन-सामग्रियों का समान एवं राष्ट्र के हित में परित्याग करके संग्रह में समर्पण का आदर्श प्रस्तुत किया। आनन्द का जीवन-भगवान महावीर की जीवन-दृष्टि का एक जीता जागता उदाहरण है। असीम साधन-सामग्री होते हुए भी उसने न तो कर्मयोग का त्याग कर निठल्ला एवं अकर्मण्य जीवन स्वीकार किया तथा न अनियमित आकांक्षाओं के पीछे ही दौड़ता रहा । कृषि एवं व्यापार करते हुए भी मर्यादा से अधिक लाभ नहीं कमाना तथा शक्ति, धन एवं अनुभव का समाज तथा राष्ट्र के हित में उपयोग करते रहनाएक श्रावक का महान आदर्श था, जो आनन्द ने प्रस्तुत किया। समाज में सम्मान एवं श्रेष्ठता प्राप्त करके भी आनन्द अपने जीवन को त्याग एवं साधना की ओर मोड़ कर ले गया। सामायिक, पौषध, उपवास, स्वाध्याय, ध्यान बादि का नियमित कार्यक्रम चलाते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। श्रावक
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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