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________________ १६४ | तीर्थकर महावीर कोई दूसरा षड्यंत्र रचेंगे । अतः विष-फल लगने से पहले ही विप-अंकुर को मिटा देना चाहिए।" मंत्रियों की नीच मंत्रणा के अनुसार राजर्षि को विष-मिश्रित अन्न दे दिया गया । विष-मिश्रित भिक्षान्न खाते ही राजर्षि को पता चल गया, किन्तु वे तो समता के परम उपासक बन चुके थे। विष ने राजपि के प्राण लूट लिए, पर उनकी समता, तितिक्षा एवं समाधि को कोई क्या लूटता ? परम समाधि के साथ केवलज्ञान प्राप्त करके राजर्षि ने निर्वाण प्राप्त कर लिया। [उत्कृष्ट भोगी : उत्कृष्ट योगी-धन्य-शालिभद्र तप एवं त्याग के शिखरयात्रियों की गणना में प्रथम प्रसंग हमने महाराज उदायन का दिया है, जिन्होंने युद्ध-क्षेत्र में अद्भुत पराक्रम दिखाकर चंडप्रद्योत जैसे दुर्दान्त शासक को बन्दी बनाया, और फिर संसार त्यागकर साधु बने, तो परम समतायोग एवं स्थितप्रज्ञता के शिखर पर पहुंच गये । भोजन में विष दिये जाने पर भी मन में पूर्ण शान्ति और समाधि के साथ आत्म-भावना में रमण करते हुए निर्वाण प्राप्त किया। इसी माला में दूसरा प्रसंग आता है-समतायोगी शालिभद्र का। शालिभद्र का भोगी जीवन एक शिखर पर पहुंचा हुआ था, जिसे देखकर मगधपति श्रेणिक स्वयं विस्मित थे, किन्तु वही उत्कृष्ट भोगी भगवान महावीर के चरणों में आया, त्याग और साधना के पथ पर बढ़ा तो योग के चरम शिखर पर पहुंच गया । उसका भोग भी उत्कृष्ट था, तो योग भी उत्कृष्ट । शालिभद्र का जीवन-प्रसंग इस प्रकार है : राजगृह में गोभद्र नाम का एक अत्यन्त धनाढ्य सेठ था। सेठानी का नाम भद्रा था। शालिभद्र उसका पुत्र था। शालिभद्र बहुत ही सुन्दर व सुकुमार था। सन्दरियों के साथ उसका पाणिग्रहण हुमा । माता-पिता द्वारा सब सुख-सुविधाएं प्राप्त कर, शालिभद्र प्रतिपल भोग-विलास व ऐश-आराम के सागर में निमग्न रहता। गोभद्र सेठ ने अपना अन्तिम जीवन साधु-चर्या में बिताया। विविध तपश्चर्याओं द्वारा निर्जरा के साथ पुण्यबन्ध करके मृत्यु को प्राप्तकर देव बना। पुत्र के प्रति अत्यन्त स्नेह-अनुराग के कारण वह विविध दिव्य भोग-सामग्रियां पुत्र के महलों में पहुंचाता रहता। शालिभद्र के पास बब भोग-सुख की क्या कमी पी..."स्वयं देवता जिसके साधन जुटाते हों......।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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