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________________ कल्याण-यात्रा | १५९ देशना ने ही जमालि के अन्तःकरण को झकझोर दिया। उसकी अध्यात्म-चेतना जागृत हो गई । संसार के समस्त भोग-विलास उसे विडम्बना और स्नेह प्यार एक प्रवंचना प्रतीत होने लगे। वह प्रबुद्ध होकर भगवान महावीर के समक्ष उपस्थित हुआ "मंते ! मुझे आपकी वाणी सत्य प्रतीत हुई है, आपका उपदेश जीवन की यथार्थता का बोध देता मेरे भासक्ति के बन्धन शिथिल हो गये, मैं संसार-स्याग कर आपका शिष्य बनना चाहता हूँ।" प्रभु महावीर ने अति सहजता के साथ कहा-"महा सुहं देवाणुप्पिया'तुम्हारी अन्तर् आत्मा को जैसा सुख हो, वैसा करो !" भगवान् महावीर का यह उत्तर उनको उपदेश शैली की सहजता सिद्ध करता है। उनकी वाणी जलधारा की भांति अत्यन्त सहजता के साथ बहती थी। उसमें अपनी सत्यता सिद्ध करने का न कोई आग्रह था, न लोगों को व्रत स्वीकार करने का कोई दबाव होता, न स्वर्ग और परलोक का ही कोई प्रलोभन होता । वे सहजभाव से विश्व-स्थिति का, जीवन की यथार्थता का दर्शन करा देते, मानव-जीवन के कर्तव्य का अवबोध देते, उनकी वाणी अपने लक्ष्य में कृत-कृत्य थी। उस अन्त.. स्फूर्त वाणी को सुनकर श्रोता सहज ही शीतल-जल-स्पर्श का-सा सुखद अनुभव करता, उसके अन्तःकरण में उसकी सत्यता प्रतिभासित होने लगती और भाव-विभोर होकर वह कह उठता-"प्रभो । आपकी वाणी सत्य है, यथार्थ है, आत्मा को हितकर है, आपकी सरस्वती (वाणी) श्रुति के माध्यम से मेरी अनुभूति बन गई है, इस अनुभूति ने मन में जागृति पैदा की है, जागृति मेरी सत्प्रवृत्ति को प्रोत्साहित कर रही है, मेरी वृत्ति अन्तर्मुख बन गई है, मैं अब आप द्वारा उपदिष्ट यथार्थ मार्ग का अनुसरण करना चाहता हूँ।" इस प्रकार भगवान् महावीर का उपदेश सहज रूप से श्रोता के मन-मस्तिष्क को प्रभावित कर उसकी अन्तश्चेतना को जागृत कर देता, न केवल जागृति हो, किन्तु उस पथ पर बढ़ जाने की एक माकुलता भी पैदा कर देता, जागृत आत्मा जब तक साधना के पथ पर चला न आता, उसे विधान्ति नहीं मिलती। अमालि के समक्ष भी यही स्थिति बनी । प्रभु की वाणी ने उसके हृदय में जागति की लहर पैदा कर दी, और फिर उनकी 'महासुई को सहज स्वीकृति ने उसे और अधिक बल प्रदान कर दिया, तो अब वह कक नहीं सका । वह उसी क्षण, भगवान के समक्ष ही अपने राजकीय परिवेश का त्यागकर साधु बन जाना चाहता था, पर त्याग उसे उतावला, कत्र्तव्य-विमुख और उत्तरदायित्वहीन न बनाये, इसलिये वह भगवान महावीर की स्वीकृति पाकर दीक्षा की अनुमति के लिये माना
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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