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________________ कल्याण-यात्रा | १४६ दीप को आवृत कर दिया । तुम अंधकार में भटक गये ? स्मरण करो अपने अतीत को । अज्ञान-दशा में, पशु-योनि में सहिष्णुता और तितिक्षा का जो महान संकल्प तुमने किया था, उससे तुम मानव बने, और आज मानव बनकर तुम क्लीवता के शिकार हो रहे हो ?" "भंते ! मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं। कृपया इस रहस्य का स्पष्ट उद्घाटन कीजिये"-मेघ के मन में जिज्ञासा के अंकुर फूटने लगे। भगवान् ने कहा-"मेघ ! मैं तुम्हें सुदूर अतीत में ले चलता हूं। अतीत की स्मृति तुम्हारी सुषप्ति को तोड़ सकेगी, तुम्हारी चेतना का दीप पुनः प्रज्वलित कर सकेगी। तीसरे जन्म में तुम एक सुन्दर विशालकाय हाथी थे। बताढ्य पर्वत की उपत्यकामों में स्वेच्छा-विहार करते थे। एक बार ग्रीष्म ऋतु में वन में आग लग गई। तेज हवा के वेग के साथ कुछ ही क्षणों में अग्नि की लपेट समूचे वन-प्रदेश में छा गई । अरण्य के पशु भयाकुल हो इधर-उधर दौड़ने लगे, तुम भी जान बचाने के लिए दौड़े। तुम्हारा यूथ आगे निकल गया, तुम बूढ़े थे, पीछे रह गये, दिशामूढ़ होकर इधर-उधर भटकने लगे। भयंकर गर्मी के कारण तुम्हें प्यास सताने लगी । पानी की खोज में तुम दूर जा निकले, एक सरोवर दिखाई दिया। तुम पानी पीने के लिए सरोवर में घुसे, सरोवर में पानी कम था । तुम दलदल में फंस गये । ज्यों-ज्यों उस दलदल से निकलने का प्रयत्न करने लगे त्यों-त्यों और गहरे धंसते चले गये। "उस समय एक युवा हाथी उघर आया। वह तुम्हारे ही यूथ का था, तुमने उसे दंत-प्रहारों से घायल करके निकाला था । तुम्हें देखते ही उसके मन में क्रोध और द्वेष का उफान आ गया । बदला लेने का यह स्वर्णिम अवसर उसके हाथ लगा था। उसने दंत-प्रहारों से तुम्हें घायल किया, स्थान-स्थान पर प्रहार कर घाव कर दिये-तुम पीड़ा से कराहने लग गये। वह युवा हापी अपना बदला लेकर चला गया। तुम सात दिन तक उसी दलदल में फसे पीड़ा से कराहते रहे । आखिर वहीं तुम्हारी मृत्यु हुई। वहाँ से मरकर विष्यपर्वत की तलहटी में पुनः तुम हाथी बने । मेरु-सा विशाल शरीर और प्रखर तेजस्विता से तुम समूचे हस्तिमण्डल के नायक बन गये । वनचरों ने तुम्हारा नाम रखा 'मेरुप्रभ' । "एक बार मकस्मात् उस वन-प्रांतर में दावानल भड़क उठा। धू-धू कर अग्निज्वालाएं उछलने लगीं। तुम अपने यूथ के साथ दूर जगल में भाग गये । इस दावानल ने तुम्हारे मन में एक विचित्र कंपन पैदा कर दिया । इस आकस्मिक माघात से तुम्हारे अतीत की स्मृति का बन्द बार खुल गया। तुम्हें जाति-स्मृति हो गई, वैताड्य-वन में लगे दावानल का रोमांचक दृश्य साकार हो गया।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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