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________________ कल्याण-यात्रा | १४७ गई। महाराज श्रेणिक स्वयं मेषकुमार के समक्ष उपस्थित होकर बोले-"मेषकुमार ! राजकीय घोषणा के अनुसार में श्रेणिक, तुम्हारा मगधपति के रूप में अभिवादन करता हूं, आदेश दो, मैं तुम्हारे लिए क्या करूं ?" मगध के सिंहासन पर बैठकर भी मेघकुमार आत्म-सिंहासन से दूर नहीं हटा । राज्यसत्ता पाकर भी वह आत्मसत्ता से विस्मृत नहीं हुआ था।णिक के प्रश्न के उत्तर में उसने बड़ी हड़ता और निस्पृहता के साथ कहा-"पिताजी ! आप मेरे लिए कुछ करना ही चाहते हैं तो मेरे दीक्षा-महोत्सव की तैयारी कीजिये । मैं कल प्रातः ही दीक्षित होना चाहता हूं।" मेघ का उत्तर सुनकर श्रेणिक अवाक रह गये । मेघ की आत्म-जागृति कितनी प्रखर है, उसकी विरक्ति कितनी तीव है-यह उसके प्रत्येक शब्द से ध्वनित हो रहा था। एक दिन का राज्य स्वीकार कर मेघकुमार ने यह स्पष्ट कर दिया कि यह जीवन भी एक दिन का राज्य है, इस राज्य-प्राप्ति की सफलता वैभव-भोग में नहीं, किन्तु सुखद भविष्य के निर्माण में है, अपने उच्चसंकल्पों को साकार करने में है। मेघ ने वही किया। दूसरे दिन संसार के समस्त भोग व ऐश्वर्य का त्याग कर वह भगवान् महावीर के चरणों में पहुंचा और अनगार बन गया। भगवान महावीर का शासन, समता का शासन था। समताधर्म ही उनके जीवन का मूलमन्त्र था, और यही मूलमन्त्र वे अपने शिष्यों को देते थे। चाहे कोई राज-पुत्र हो, या रजक-पुत्र । दीक्षित होने के पश्चात् वह पूर्व-जीवन के सम्बन्धों को भुला देता था। पूर्व-संस्कारों से मुक्त हो, रत्नत्रय की ज्येष्ठता के आधार पर ही वहाँ का समस्त व्यवहार चलता था। मेघकूमार दीक्षित हो गया, दिन जागरण में बीता, रात को सोने का समय हुआ । अन्तरदृष्टि से भले ही श्रमण सदा जागृत रहता हो, पर शरीर की सहजवृत्ति के अनुसार नींद भी लेता है । भगवान महावीर के पास जितने श्रमण थे वे सभी अपने-अपने दीक्षाक्रम (पर्याय-ज्येष्ठता) के अनुसार अपनी शय्या लगाने लगे । मेघ. मुनि सबसे लघु थे, उनका आखिरी क्रम था, अतः सोने का स्थान भी उन्हें सबसे अन्त में द्वार के पास में ही मिला । उसी द्वार से रात्रि में लघुशंका आदि निवारणा मुनियों का आगमन तथा ध्यान आदि के लिये बाहर आना-जाना रहा। आते-जाते श्रमणों के पैरों की बाहट से मेष की नींद उचट गई, कभी-कभी बन्धकार में कुछ दिखाई न पड़ने के कारण मेघ के हाथ-पैर को श्रमणों के पावों का
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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