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________________ कल्याण-यात्रा | १४५ राजगृह के बाहर गुणशिमक चैत्य था, भगवान महावीर अपने विशाल धर्मसंघ के साथ वहीं आकर ठहरे। ग्यारह मूर्धन्य ब्राह्मण विद्वानों की श्रमण नेता के चरणों में दीक्षा और आर्या चन्दनबाला की प्रव्रज्या जैसी आश्चर्यजनक घटनामों से तब तक अंग-मगध की जन-चेतना में जिज्ञासा और धर्म-जागति की लहर फैल चुकी थी। भगवान् महावीर के राजगृह में आगमन की सूचना बिजली की भांति सर्वत्र फैल गई। उनके दर्शनों के लिये जन-प्रवाह उमड़ पड़ा। महाराज श्रेणिक, रानी चेलणा भी विशाल राजपरिवार के साथ प्रभु के दर्शन करने गये। राजा श्रेणिक का एक अत्यन्त प्रिय एवं प्रतिभाशाली पुत्र था-मेषकुमार। मेघकुमार ने भी जब भगवान महावीर के आगमन का संवाद सुना तो उसे उत्कंग हुई- जिज्ञासा जगी । मन में कुछ कुतूहल भी हुमा-महावीर कौन हैं ? ऐसा क्या आकर्षण है उनमें ? क्यों यह जनसमूह उनके दर्शनों के लिये उमड़ रहा है ? इस प्रकार जिज्ञासा की लहरें उसके मानस-सागर को आलोड़ित करने लगीं। वह इस उत्कंठा के प्रवाह को रोक नहीं सका । अपने रथ में बैठकर सीधा गुणशिलक चैत्य की ओर पहुंचा । वहां देखा, पहले से ही महाराज श्रेणिक, महारानी माता धारणी, चेलणा, अभयकुमार तथा राजगृह के हजारों श्रेष्ठी, सामन्त और साधारण नागरिक उपस्थित हैं। मेषकुमार को सबसे विचित्र बात लगी-भगवान् के इस दरबार (समवसरण) में सब समान आसन पर बैठे हैं। चाहे देवया देवेन्द्र हैं, सम्राट है, महारानी हैं या अति साधारण प्रजाजन । सर्वत्र समता का साम्राज्य है, समानता का वातावरण है । समानता की इस नई सृष्टि ने मेघकुमार के मन को प्रभावित कर दिया, महावीर की दिव्य चेतना के प्रति आकृष्ट कर दिया । उसे अनुभूति हुईयहाँ कुछ नवीन है, अब तक जो नहीं सुना, नहीं देखा-वह यहां उपलब्ध है । मेघकुमार विनयपूर्वक अभिवादन करके प्रभु के समक्ष बैठ गया और ध्यानपूर्वक तन्मयता के साथ उनकी वाणी सुनने लगा। भगवान् महावीर की वाणी में अनुभूति की सहज गूज थी, सत्य का चुम्बकीय नाद था। मानव-जीवन की महत्ता, उपयोगिता और उसे सफल बनाने की कला का सरल हृदयग्राही विश्लेषण सुनकर मेघकुमार की अन्तश्चेतना जागृत हो गई। भोगासक्ति से विरक्ति की ओर मुड़ गया उसका अन्तःकरण । देशना का क्रम समाप्त होते ही वह प्रभु महावीर के चरणों में आकर भाव-विभोर मुद्रा में विनत हो गया-"प्रमो! आपने जीवन का चरम सरय उद्घाटित कर दिया। जन्म-जन्म से मेरी सोई मात्मा जाग उठी, मैं आपके चरणों में दीक्षित होकर साधना के इस
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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