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________________ १३४ | तीर्थकर महावीर इन्द्रभूति के विचारों का सर्वानुमति से समर्थन किया गया, और बर्धमान महावीर के साथ तत्त्व चर्चा कर उन्हें परास्त करने के लिये वे चल पड़े अपने ५०० छात्रों के विशाल परिवार को लेकर । इन्द्रभूति जैसे-जैसे महावीर के समवसरण की ओर बढ़ रहे थे, उनकी मनोभूमि में भारी उथल-पुथल और एक संशयात्मक स्थिति पैदा हो रही थी। मार्ग में जनसमूह से एक स्वर में जब महावीर के तपस्तेज एवं अपूर्व शानबल की चर्चा सुनने में आई तो उनके मन की विरोधी ग्रन्थियां शिथिल हो गई। एक विचित्र कुतूहल से मन आकुल हो उठा। महावीर में ऐसा क्या अद्भुत है ? उनकी वाणी में ऐसा क्या ओजस् है ? क्या आकर्षण है ? और क्या है युगधर्म का मन-मोहन स्वर, कि सर्वत्र उनका जादू छा रहा है ? विचारों के उतार-चढ़ाव, विजिगीषा के वात्याचक्र तथा शान-प्रतिमा और आभिजात्यता के अहंकार में मूलते हुए इन्द्रभूति महावीर की धर्मपरिषद् (समवसरण) के द्वार पर पहुंच गये । वे मन में प्रतिस्पर्धा की आग लिये आ रहे थे, पर जैसे ही भगवान महावीर की मुखमुद्रा की ओर देखा कि-मन में शान्ति का एक हिमालय-सा पिघलता प्रतीत हुआ । उन्हें लगा,-इन आँखों से स्नेह एवं मैत्री की जो अमृतवर्षा हो रही है, उससे उनके मन का, जनम-जनम का निदाघ शान्त हो रहा है । एक अपूर्व शीतलता व्याप्त हो रही है। द्वार पर पहुंचते ही भगवान ने स्नेह-सिक्त शब्दों में संबोधन किया-'इन्द्रभूति गौतम ! तुम आ पहुंचे ?" गौतम को अनुभव हुमा-भगवान महावीर के शब्दों में मात्र शिष्टाचार की ध्वनि ही नहीं, हृदय को खींचने वाली मंत्री का विद्युत आकर्षण है । वे पहले ही भण पानी-पानी हो गये, मन विनत हो गया, पर मस्तिष्क ज्ञान के अहंकार में अभी भी उडत था। सोचा-"महावीर मेरा नाम जानते हैं? जब इतने विचक्षण और व्यवहारकुशल है तो मुझ जैसे विश्व-वित्रत विद्वान से अपरिचित कैसे रह सकते हैं ? शायद अपनी सर्वज्ञता की धाक जमाने के लिये ही मुझे मेरे नाम-गोत्र से पुकारते हैं, पर मैं क्या कोई भोली मछली हूं जो इनके जाल में फंस जाऊँ ? नहीं, में इनके मायाजाल में कभी नहीं फंस सकता।" इन्द्रभूति विकल्पों में उलझे-उलझे कुछ आगे बढ़े, कि भगवान महावीर ने मपुर ओजस्वी स्वर में कहा-"इन्द्रभूति ! तुम इतने बड़े विद्वान होकर भी बीव की सत्ता के विषय में सन्देह कर रहे हो?"
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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