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________________ १०४ | तीर्षकर महावीर भी सह नहीं पाता, पर महावीर थे कि वे अग्नि में स्वर्ण की भांति अधिक-से-अधिक दीप्तिमान होते गये। ___ जब संगम ने देखा-सुमेरु पर्वत को हिला देना संभव हो सकता है, महासागर को क्षब्ध कर डालना भी संभाव्य है, पर श्रमण महावीर को अपने पथ से विचलित करना असंभव है। हजार-हजार देवता तो क्या, सारे संसारकी दिव्यशक्तियां भी वहां हार खा जायेंगी। अन्ततः हताश, निराश, उदास संगम एक दिन श्रमण महावीर के पास माया, और विनम्रता का अभिनय करके बोला-"महाश्रमण ! देवराज इन्द्र ने आपकी धीरता और तितिक्षा की प्रशंसा की थी, वह अक्षरशः सत्य सिद्ध हई । मैं उसे असत्य करने पर तुला था, पर मेरे समस्त प्रयत्न व्यर्थ गये, मापको असीम कष्ट एवं पीड़ाएं देकर भी मैंने देखा कि आपके हृदय के किसी कोने में भी उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, सचमुच आप अपनी हढ़ता में सत्य प्रतिज्ञ रहे, मैं अपने निश्चय से पतित (घ्रष्टप्रतिज्ञ) हो गया। अब मैं क्षमा चाहता हूं, माप निर्विघ्न विचरिये और छह महीनों से जो उपवास चल रहा है, कृपया अब उसका पारणा कीजिये।" संगम के वचन सुनकर महावीर धीर-गंभीर स्वर में बोले-"संगम ! मैं न किसी के प्रार्थना-वचन सुनकर प्रसन्न होता हूं और न आक्रोश वचनों से क्षध । मैं तो सदा आत्महित की दृष्टि से स्वेच्छापूर्वक विहार करता हूं। तुमने जो कष्ट दिये, वे मेरे तन को भले ही उत्पीड़ित करते रहे हों, किन्तु मन तक उनकी वेदना का स्पर्श नहीं पहुंच सका, अतः तुम्हारे प्रति मेरे मन में रत्ती भर भी देष-रोष या बाक्रोश नहीं है, हाँ एक बात का अफसोस अवश्य है कि मेरा निमित्त बहुत जीवों के हित व कल्याण का साधन बनता है, वहाँ तुमने अपने निबिड़ कर्म-बन्धनों के होने में मुझे हेतुभूत बना लिया, तुम्हारा भविष्य जब अन्धकारमय, और सघन कर्मकालिमा से कलुषित देखता हूं तो ...." कहते-कहते महावीर की अनन्त करुणा और वात्सल्य वर्षा की तरह उमड़ कर आंखों में बरस पड़े। उनकी पलकें करुणा हो उठी, मुखमुद्रा वात्सल्यरस से आप्लावित हो गई। ऐसा लग रहा था जैसे हिमाद्रि की कठोर चट्टान के भीतर से पानी का शीतल निर्झर फूट पड़ा हो । श्रमण महावीर के वचनों की हृदय-वेधकता, उनकी आंखों की आदता और मुखाकृति की करुणाशीलता ने संगम के पाषाण-तुल्य हृदय पर वह चोट की, जो आज तक उनकी कठोर तितिक्षा से भी नहीं हो पाई थी। संगम लज्जित हो गया, उसका अन्तहदय उसे धिक्कारने लगा और वह महावीर के समक्ष ऊंचा मुंह किये क्षण भर भी ठहर नहीं सका । आग से खेलने वाला संगम पानी से हार कर भाग गया।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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