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________________ १२ | तीर्थंकर महावीर गौशालक की रक्षा और रहस्यदान ववभूमि आदि बनायं प्रदेशों में श्रमण महावीर छह महीने तक विहार कर अनेक दुस्सह एवं प्राणघातक यातनायें झलते रहे। इस स्वयं-गृहीत कष्ट से प्रत्यक्ष लाभ क्या हुआ, यह समझना कठिन होगा, किन्तु परोक्ष लाभ अनेक हुए। भविष्यद्रष्टा की नजर में वह यात्रा एक ऐतिहासिक-साहसिक यात्रा कही जा सकती है। प्रथम बात - समय-समय पर भगवान महावीर को चरम कोटि की तितिक्षा, समभाव और तपः-साधना के अनेक दुर्लभ प्रसंग प्राप्त हुए, जो अन्य प्रदेशों में सम्भवतः नहीं मिलते। इससे उनका परम इच्छित-'महान् कर्म-निर्जरा' का ध्येय भी पूर्ण हुमा। दूसरी बात-अनार्यभूमि के वासी जो श्रमण की आकृति से भी घृणा एवं हेष करते थे, वे छहमास तक बराबर एक महान धीर-वीर तेजस्वी श्रमण के निकट में आये, भले ही उन्हें यातनायें दीं, पर उनकी कठोरतम यातनाओं को सहर्ष झेल कर श्रमण महावीर ने उनके हृदयों को झकझोर डाला, श्रमण की समता और तेजस्विता ने अमिट छाप उनके मानस पर डाली और उन्हें एक परिकल्पना दी, एक वास्तविकता के दर्शन कराये कि श्रमण सिर्फ पेट भरने के लिये नहीं, किन्तु साषना और जनकल्याण के लिये ही इस धरती पर विहार करता है। वह जीवनमरण, सुख-दुख मान-अपमान एवं लाभ-अलाभ में सुमेरु की भांति स्थिर, निष्कंप और सम रहता है। अनार्य भूमिवासियों के मन पर श्रमण के इस भव्य स्वरूप की कल्पना अवश्य अंकित हुई होगी, और इसका प्रत्यक्ष परिणाम यह माया कि श्रमण महावीर के पश्चात् अनेक श्रमण उन क्षेत्रों में गये, पर इतने दुस्सह कष्ट उन्हें नहीं झेलने पड़े। स्पष्ट है कि श्रमण महावीर साधनाकाल में न सिर्फ स्वयं ही साधनाध्यान में लीन रहे, किन्तु श्रमण-मार्ग के प्रति जनता की भ्रांतियां दूर कर एक आदर, श्रद्धा और सद्भावना का वातावरण भी निर्माण कर रहे थे। अनार्य-क्षेत्रों की इस यात्रा में गौशालक भी साथ था। छह महीने तक उसने भी चाहे-अनचाहे अनेक कष्ट सहे और श्रमण महावीर की कठोर तितिक्षा एवं परम धीरता के प्रति मन-ही-मन अत्यन्त आदर करने लगा। अनार्यभूमि से लौटते हुये भगवान महावीर कूर्मग्राम' की ओर जा रहे थे। मार्ग में तिल का एक छोटासा पौधा खड़ा था, जो रास्ते के करीब था, और बहुत संभव था, किसी भी क्षण, १ पूर्वी बिहार में बीरभूम व सियार्षपुर के बास-पास ।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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