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________________ ८८ | तीर्थकर महावीर तेजोवीप्त हो रही थी, पर, गौशालक उन यातनाओं से घबरा उठा । उसने प्रभ से कहा-"देवार्य | आपके साथ रहते हुए तो मुझे ऐसे कष्ट उठाने पड़ रहे हैं, जिनकी जीवन में आज तक कल्पना भी नहीं की। पशु से भी बदतर मेरी दया हो रही है, आप तो मुझे कभी बचाते भी नहीं । अतः अब मैं आपके साथ नहीं रहूंगा।" प्रभु मौन रहे, गौशालक साथ छोड़कर कहीं अन्यत्र चला गया।' अविचल ध्यानयोग (कटपूतना का उपद्रव) श्रमण महावीर.कायोत्सर्ग और ध्यान-योग की एक जीवंत मूर्ति थे। भयानक जंगलों में, घोर झंझावातों और तूफानों में, कड़कड़ाती सर्दी और चिलचिलाती धूप में भी वे सदा ध्यान-मग्न रहते थे। लीनता भी इतनी कि तन पर भयंकर शस्त्र-प्रहार हों, या अग्निज्वालाएं झुलसाने आ रही हों; फिर भी वे सुमेरु की भांति अविचल मप्रकंपित बड़े ही रहते । कोई भी प्राकृतिक उपसर्ग या दैविक आपत्तियां उनका ध्यान भंग नहीं कर सकीं। उनके अविचल ध्यानयोग और सुमेरु-सी स्थितप्रज्ञता के एक दो प्रसंग ये हैं श्रावस्ती से विहार कर प्रभु हलिद्दुग गांव की ओर जा रहे थे। गांव के बाहर एक विशाल वृक्ष था। रात्रि में प्रभु महावीर उसी वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हो गये । तब तक गौशालक भी साथ था। वह भी एक ओर बैठा रहा। इस मार्ग से गुजरने वाले अनेक यात्रियों ने भी रात्रि में वृक्ष के नीचे आश्रय लिया। शीत-ऋतु थी, इसलिये यात्रियों ने इधर-उधर से घास-पात व लक्कड़ इकट्ठे कर आग जलाई और रातभर तापते रहे। प्रातः सूर्योदय के समय यात्रियों का काफिला आगे चल पड़ा, पर आग किसी ने नहीं बुझाई । हवा के वेग से आग बढ़ने लगी, गौशालक चिल्लाया-"भगवन् ! आग बढ़ रही है, भागो ! भागो !" और वह तो भाग खड़ा हमा। प्रभु ध्यान में स्थिर थे। वे आग और पानी से कब भयभीत होते ? आग की लपटें बढ़ती हुई उनके पैरों के निकट आ गई, पांव मुलस भी गये, पर महाश्रमण तब भी अपने समता-रस-नावी ध्यान में निमग्न रहे । अग्निज्वालाएं जैसे समता-सुधा के समक्ष स्वतः ही शान्त हो गई। १घटना वर्ष वि. पू. ५०५-५०४ २ षटना वर्ष वि.पू. ५०८-५०७ (शीतऋतु)
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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