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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लोकवर्णन और भूगोल शाल्मली (सेमर) का वृक्ष है जिसके कारण इस द्वीपका नाम शाल्मलीद्वीप हुआ। इस द्वीपमें सुरोचन, सौमनस्य, रमणक, देववर्ष, पारिभद्र और अविज्ञात ये सात क्षेत्र हैं। स्वरस, शतशृंग, वामदेव, कुन्द, मुकुन्द, पुष्पवर्ष और सहस्रश्रुति ये सात पर्वत हैं। अनुमति, सिनीवाली, सरस्वती, कुहु, रजनी, नन्दा और राका ये नदियां हैं। मदिराके समुद्रसे आगे उसके दूने विस्तारवाला कुशद्वीप है। यह द्वीप अपने ही परिमाणवाले घृतके समुद्रसे घिरा हुआ है। इसमें एक कुशोंका झाड़ है इसीसे इस द्वीपका नाम कुशद्वीप है । इस द्वीपमें भी सात क्षेत्र हैं। चक्र, चतुःशृंग, कपिल, चित्रकूट, देवानीक ऊर्ध्वरोमा और द्रविण ये सात पर्वत है। रसकुल्या, मधुकुल्या, मित्रवृन्दा, देवगर्भा, घृतच्युता और मन्त्रमाला ये सात नदियां हैं। घृत समुद्रसे आगे उससे द्विगुण परिमाणवाला क्रौञ्चद्वीप है। यह द्वीप भी अपने समान विस्तारवाले दूधके समुद्रसे घिरा हुआ है। यहां क्रौञ्च नामका एक बहुत बड़ा पर्वत है उसीके कारण इसका नाम क्रौञ्च द्वीप हुआ। इस द्वीपमें भी सात क्षेत्र हैं। शुक्ल, वर्धमान, भोजन, उपबहिण, नन्द, नन्दन और सर्वतोभद्र ये सात पर्वत हैं। तथा अभया, अमृतोद्या, आर्यका, तीर्थवती, वृतिरूपवती, पवित्रवती और शुक्ला ये सात नदियां हैं। इसी प्रकार क्षीरसमुद्रसे आगे उसके चारों ओर बत्तीस लाख योजन विस्तारवाला शाकद्वीप है जो अपने ही समान परिमाणवाले मठेके समुद्रसे घिरा हुआ है। इसमें शाक नामका एक बहुत बड़ा वृक्ष है वही इस द्वीपके नामका कारण है। इस द्वीपमें भी सात क्षेत्र सात पर्वत तथा सात नदियाँ हैं। इसी प्रकार मठेके समुद्रसे आगे उससे दूने विस्तारवाला पुष्कर द्वीप है । वह चारों ओर अपने समान विस्तारवाले मीठे जलके समुद्रसे घिरा हुआ है। वहां एक बहुत बड़ा पुष्कर (कमल) है जो इस द्वीपके नामका कारण है। इस द्वीपके बीचोंबीच इसके पूर्वीय और पश्चिमीय विभागोंकी मर्यादा निश्चित करनेवाला मानसोत्तर नामका एक पर्वत है। यह दस हजार योजन ऊँना और इतना ही लम्बा है । इस द्वीपके आगे लोकालोक नामका एक पर्वत है । लोकालोक पर्वत सूर्यसे प्रकाशित और अप्रकाशित भूभागोंके बीच में स्थित है इसीसे इसका यह नाम पड़ा। यह इतना ऊँचा और इतना लम्बा है कि इसके एक ओरसे तीनों लोकोंको प्रकाशित करने वाली सूर्यसे लेकर ध्रुव पर्यंत समस्त ज्योतिमण्डलकी किरणें दूसरी ओर नहीं जा सकतीं। समस्त भूगोल पचास करोड़ योजन है। इसका चौथाई भाग (१२॥ करोड़ योजन) यह लोकालोक पर्वत है। इस प्रकार भूलोक का परिमाण समझना चाहिए। भूलोकके परिमाणके समान ही धुलोकका भी परिमाण है। इन दोनों लोकोंके बीचमें अन्तरिक्ष लोक है, जिसमें सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और ताराओंका निवास है। सूर्यमण्डलका विस्तार दस हजार योजन है और चन्द्रमण्डलका विस्तार बारह हजार योजन है। ___ अतल आदि नीचे के लोकों का वर्णन-भूलोकके नीचे अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, और पाताल नामके सात भू-विवर (बिल) हैं। ये क्रमशः नीचे नीचे दस दस हजार योजनकी दूरी पर स्थित हैं। प्रत्येक बिलकी लम्बाई चौड़ाई भी दस दस हजार योजनकी है। ये भूमिके बिल भी एक प्रकारके स्वर्ग हैं । इनमें स्वर्गसे भी अधिक विषयभोग ऐश्वर्य, आनन्द, सन्तानसुख और धन-संपत्ति है। नरकोंका वर्णन-समस्त नरक अट्ठाइस हैं। जिनके नाम निम्न प्रकार हैं-तामिस्र, अन्धतामिस्र, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, सूकरमुख, अन्धकूप, कृमिभाजन, सन्दंश, तप्तसूमि, वज्रकण्टकशाल्मली, वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि, अयःपान, क्षारकर्दम, रक्षोगणभोजन, शूलप्रोत, दन्दशूक, अवटरोधन, पर्यावर्तन, और सूचीमुख । For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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