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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 17 तत्त्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना के बाद ही प्रथमसूत्रको उत्थानिका शुरू होती है। (२) अकलंकदेव तत्त्वार्थवातिकमें न इस श्लोककी व्याख्या करते हैं और न इसके पदोंपर कुछ ऊहापोह ही करते हैं। (३) विद्यानन्द स्वयं तत्त्वार्थश्लोकवातिकमें इसकी व्याख्या नहीं करते। इनने प्रसंगतः इस श्लोक के प्रतिपाद्य अर्थका समर्थन अवश्य किया है। यदि विद्यानन्द स्वयं ऐतिहासिक दृष्टिसे इसके कर्तृत्वके सम्बन्धमें असंदिग्ध होते तो वे इसकी यथावद् व्याख्या भी करते। (४) तत्त्वार्थसूत्रके व्याख्याकार समस्त श्वेताम्बरीय आचार्योंने इस श्लोककी व्याख्या नहीं की और न तत्त्वार्थसूत्रके प्रारम्भमें इस श्लोककी चर्चा ही की है। यह श्लोक इतना असम्प्रादायिक और जैन आप्त स्वरूपका प्रतिनिधित्व करनेवाला है कि इसे सूत्रकारकृत होनेपर कोई भी कितना भी कट्टर श्वे० आचार्य छोड़ नहीं सकता था। अनेकान्त पत्रके पांचवें वर्षके अंकोंमें इस श्लोकके ऊपर अनुकूल-प्रतिकूलचरचा चल चुकी है। फिर भी मेरा मत उपर्युक्त कारणोंके आधारसे इस श्लोकको मूलसूत्रकारकृत माननेका नहीं है। यह श्लोक पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि टीकाके प्रारम्भमें बनाया है इस निश्चयको बदलनेका कोई प्रबल हेतु अभीतक मेरी समझमें नहीं आया। लोकवर्णन और भूगोल-जैनधर्म और जैन दर्शन जिसप्रकार अपने सिद्धान्तोंके स्वतन्त्र प्रतिपादक होनेसे अपना मौलिक और स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं उस प्रकार जन गणित या जैन भूगोल आदिका स्वतन्त्र स्थान नहीं है। कोई भी गणित हो, वह दो और दो चार ही कहेगा। आजके भूगोलको चाहे जैन लिखे या अजैन जैसा देखेगा या सुनेगा वैसा ही लिखेगा। उत्तरमें हिमालय और दक्षिणमें कन्याकुमारी ही जन भूगोलमें रहेगी। तथ्य यह है कि धर्म और दर्शन जहाँ अनुभवके आधारपर परिवर्तित और संशोधित होते रहते हैं वहाँ भूगोल अनुभवके अनुसार नहीं किन्तु वस्तुगत परिवर्तनके अनुसार बदलता है। एक नदी जो पहिले अमुक गांवसे बहती थी कालक्रमसे उसकी धारा मीलों दूर चली जाती है । भूकम्प, ज्वालामुखी और बाढ़ आदि प्राकृतिक परिवर्तनकारणोंसे भूगोलमें इतने बड़े परिवर्तन हो जाते हैं जिसकी कल्पना भी मनुष्यको नहीं हो सकती। हिमालयके अमुक भागोंमें मगर और बड़ी बड़ी मछलियोंके अस्थि-पंजरोंका मिलना इस बातका अनुमापक है कि वहाँ कभी जलीय भाग था। पुरातत्त्वके अन्वेषणोंने ध्वंसावशेषोंसे यह सिद्ध कर दिया है कि भूगोल कभी स्थिर नहीं रहता वह कालक्रमसे बदलता जाता है। राज्य परिवर्तन भी अन्तःभौगिलिक सीमाओंको बदलने में कारण होते हैं। पर समग्र भूगोलका परिवर्तन मुख्यतया जलका स्थल और स्थलका जलभाग होने के कारण ही होता है। गाँवों और नदियोंके नाम भी उत्तरोत्तर अपभ्रष्ट होते जाते हैं और कुछके कळ बन जाते हैं। इस तरह कालचक्रका ध्र वभावी प्रभाव भूगोलका परिवर्तन बराबर करता रहता है । जैन शास्त्रोंमें जो भूगोल और खगोलका वर्णन मिलता है उसकी परम्परा करीब तीन हजार वर्ष पुरानी है। आजके भूगोलसे उसका मेल भले ही न बैठे पर इतने मात्रसे उस परम्पराकी स्थिति सर्वथा सन्दिग्ध नहीं कही जा सकती। आजसे २॥-३हजारवर्ष पहिले सभी सम्प्रदायोंमें भूगोल और खगोलके विषयमें प्रायः यही परम्परा प्रचलित थी जो जैन परम्परामें निबद्ध है। बौद्ध वैदिक और जैन तीनों परम्पराके भूगोल और खगोल सम्बन्धी वर्णन करीब करीब एक जैसे हैं। वही जम्बूद्वीप, विदेह, सुमेरु, देवकुरु,उत्तरकुरु, हिमवान्, आदि नाम और वैसीही लाखों योजनकी गिनती। इनका तुलनात्मक अध्ययन हमें इस निष्कर्षपर पहुँचाता है कि उस समय भूगोल और खगोलकी जो परम्परा श्रुतानुश्रुत परिपाटीसे जैनाचार्योंको मिली उसे उन्होंने लिपिबद्ध कर दिया है। उस समय भूगोलका यही रूप रहा होगा जैसा कि हमें प्राय: भारतीय परम्पराओंमें मिलता है। आज हमें जिस रूपमें मिलता है उसे उसी रूपमें मानने में क्या आपत्ति है ? भगोलका रूप सदा शाश्वत तो रहता नहीं । जैन परम्परा इस ग्रन्थके तीसरे और चौथे अध्यायके पढ़नेसे ज्ञात हो सकती है। बौद्ध और वैदिक परम्पराके भूगोल और खगोलका वर्णन इस प्रकार है--- For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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