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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वार्थवृत्ति प्रस्तावना ग्रन्थका बाह्य स्वरूप-- तत्त्वार्थाधिगमसूत्र जैनपरम्परा की गीता बाइबिल कुरान या जो कहिए एक पवित्र ग्रन्थ है। इसमें बन्धनमुक्तिके कारणोंका सांगोपांग विवेचन है। जैनधर्म और जनदर्शनके समस्त मूल आधारोंकी संक्षिप्त सूचना इस सूत्र ग्रन्थसे मिल जाती है। भ० महावीरके उपदेश अर्धमागधी भाषामें होते थे जो उस समय मगध और विहारकी जनबोली थी। शास्त्रोंमें बताया है कि यह अर्धमागधी भाषा अठारह महाभाषा और सातसौ लघुभाषाओं के शब्दोंसे समृद्ध थी। एक कहावत है-"कोस कोस पर पानी बदले चारकोस पर पर,बानी।" सो यदि मगध देश काशीदेश और विहार देशमें चार चार कोसपर बदलनेवाली बोलियोंकी वास्तविक गणना की जाय तो वे ७१८ से कहीं अधिक हो सकती होंगी। अठारह महाभाषाएँ मुख्य मुख्य अठारह जनपदोंकी राजभाषाएँ कहीं जाती थी। इनमें नाममात्रका ही अन्तर था। क्षुल्लकभाषाओंका अन्तर तो उच्चारणकी टोनका ही समझना चाहिए। जो हो, पर महावीरका उपदेश उसमयकी लोकभाषामें होता था जिसमें संस्कृत जैसी वर्गभाषाका कोई स्थान नहीं था। बद्धकी पालीभाषा और महावीरकी अर्धमागधी भाषा करीब करीब एक जैसी भाषाएँ हैं। इनमें वही चारकोसकी बानी वाला भेद है। अर्धमागधीको सर्वार्धमागधी भाषा भी कहते हैं और इसका विवेचन करते हुए लिखा है "अधं भगवद्भाषाया मगधदेशभाषात्मकम् अर्धं च सर्वदेशभाषात्मकम्” अर्थात्-भगवान्की भाषामें आधे शब्द तो मगध देशकी भाषा मागधी के थे और आधे शब्द सभी देशोंकी भाषाओंके थे। तात्पर्य यह कि अर्धमागधी भाषा वह लोकभाषा थी जिसे प्रायः सभी देशके लोग समझ सकते थे। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि महावीरकी जन्मभूमि मगध देश थी, अत: मागधी उनकी मातृभाषा थी और उन्हें अपना विश्वशान्तिका अहिंसा सन्देश सब देशोंकी कोटि कोटि उपेक्षित और पतित जनता तक भेजना था अत: उनकी बोली में सभी देशोंकी बोलीके शब्द शामिल थे और यह भाषा उस समयकी सर्वाधिक जनताकी अपनी बोली थी अर्थात् सबकी बोली थी। जनबोलीमें उपदेश देनेका कारण बतानेवाला एक प्राचीन श्लोक मिलता है-- "बालस्त्रीमन्वमूर्खाणां न्दृणां चारित्र्यकाक्षिणाम् । प्रतिवोधनाय तत्वज्ञः सिद्वान्तः प्राकृतः कृतः ॥" अर्थात्-बालक स्त्री या मूर्खसे मूर्ख लोगोंको, जो अपने चारित्र्यको समुन्नत करना चाहते हैं, प्रतिबोध देनेके लिए भगवान् का उपदेश प्राकृत अर्थात् स्वाभाविक जनबोलीमें होता था न कि संस्कृत अर्थात् बनी हुई बोलीकृत्रिम वर्गभाषामें। इन जनबोलीके उपदेशोंका संकलन 'आगम' कहा जाता है। इसका बड़ा विस्तार था। उस समय लेखनका प्रचार नहीं हुआ था। सब उपदेश कण्ठपरम्परा से सुरक्षित रहते थे। एक दूसरेसे सुनकर इनकी धारा चलती थी अतः ये 'श्रुत' कहे जाते थे। महावीरके निर्वाणके बाद यह श्रुत परम्परा लुप्त होने लगी और ६८३ वर्ष बाद एक अंगका पूर्ण ज्ञान भी शेष न रहा। अंगके एक देशका ज्ञान रहा । श्वेताम्बर परम्परामें बौद्ध संगीतियोंकी तरह वाचनाएँ हुईं और अन्तिम वाचना देवर्धिगणि क्षमाश्रमणके तत्त्वावधानमें . वीर संवत् ९८० वि० सं० ५१० में बलभीमें हुई। इसमें आगमोंका त्रुटित अत्रुटित जो रूप उपलब्ध था संकलित हुआ। दिगम्बर परम्परामें ऐसा कोई प्रयत्न हुआ या नहीं इसकी कुछ भी जानकारी नहीं है । दिगम्बर परम्परामें विक्रमकी द्वितीय तृतीय शताब्दीमें आचार्य भूतबलि पुष्पदन्त और गुणधरने षट्खंडागम और कसायपाहुडकी रचना आगमाश्रित साहित्यके आधारसे की। पीछे कुन्दकुन्द आदि आचार्योंने आगम परम्पराको केन्द्रमें रखकर तदनुसार स्वतन्त्र ग्रन्थ रचना की। ___ अनुमान है कि विक्रमकी तीसरी चौथी शताब्दीमें उमास्वामी भट्टारकने इस तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की थी। इसीसे जैन परम्परामें संस्कृतग्रन्थनिर्माणयुग प्रारम्भ होता है। इस तत्त्वार्थसूत्रकी रचना इतने For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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