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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्याद्वाद कल्पित धर्मों तक व्यवहारके लिए भले ही पहुँच जाय पर वस्तुव्यवस्थाके लिए वस्तुकी सीमाको नहीं लाँघता । अत: न यह संशयवाद है, न अनिश्चयवाद है और न संभावनावाद ही, किंतु खरा अपेक्षाप्रयुक्त निश्चयवाद है। इसी तरह डॉ० देवराजजीका पूर्वी और पश्चिमी दर्शन (पृ० ६५) में किया गया स्यात् शब्द का 'कदाचित्' अनुवाद भी भ्रामक है । कदाचित् शब्द कालापेक्ष है। इसका सीधा अर्थ है किसी समय । और प्रचलित अर्थमें यह संशयकी ओर ही झुकता है। स्यात् का प्राचीन अर्थ है कथञ्चित्-अर्थात् किसी निश्चित प्रकारसे, स्पष्ट शब्दोंमें अमुक निश्चित दृष्टिकोणसे । इस प्रकार अपेक्षाप्रयुक्त निश्चयवाद ही स्याद्वादका अभ्रान्त वाच्यार्थ है। महापंडित राहुल सांकृत्यायनने तथा इतः पूर्व प्रो० जैकोबी आदिने स्याद्वादकी उत्पत्तिको संजयवेलठिपुत्तके मतसे बतानेका प्रयत्न किया है। राहुलजीने दर्शन-दिग्दर्शन (पृ० ४९६) में लिखा है कि -"आधुनिक जैनदर्शनका आधार स्यावाद है । जो मालूम होता है संजयवेलठिपुत्तके चार अंग वाले अनेकान्तवादको लेकर उसे सात अंगवाला किया गया है। संजयने तत्त्वों (परलोक देवता) के बारेमें कुछ भी निश्चयात्मक रूप से कहने से इनकार करते हुए उस इनकारको चार प्रकार कहा है १ है ? नहीं कह सकता। २ नहीं है ? नहीं कह सकता। ३ है भी और नहीं भी? नहीं कह सकता । ४ न है और न नहीं है ? नहीं कह सकता। इसकी तुलना कीजिए जैनोंके सात प्रकारके स्याहादसे-- १ है ? हो सकता है (स्यादस्ति) २ नहीं है ? नहीं भी हो सकता है (स्यान्नास्ति) ३ है भी और नहीं भी ? है भी और नहीं भी हो सकता (स्यादस्ति च नास्ति च) उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा सकते हैं (-वक्तव्य हैं) ? इसका उत्तर जैन 'नहीं में देते हैं४ स्याद् (हो सकताहै ) क्या यह कहा जा सकता है (-वक्तव्य) है ? नहीं, स्याद् अ-वक्तव्य है । ५ स्यादस्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्याद् अस्ति' अवक्तव्य है। ६ स्याद् नास्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्याद् नास्ति' अवक्तव्य है। ७ स्याद् अस्ति च नास्ति च' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं 'स्यादस्ति च नास्ति च अ-वक्त व्य है। दोनोंके मिलाने से मालूम होगा कि जैनोंने संजयके पहिलेबाले तीन वाक्यों (प्रश्न और उत्तर दोनों) को अलग करके अपने स्याहादकी छह भगियाँ बनाई हैं और उसके चौथे वाक्य 'न है और न नहीं है' को जोड़कर 'सद्' भी अवक्तव्य है यह सातवाँ भंग तैयार कर अपनी सप्तभंगी पूरी की।..... इस प्रकार एक भी सिद्धान्त (-स्याद) की स्थापना न करना जो कि संजय का वाद था, उसीको संजयके अनुयायियोंके लुप्त हो जानेपर जैनोंने अपना लिया और उसके चतुभंगी न्यायको सप्तभंगीमें परिणत कर दिया।" राहुलजीने उक्त सन्दर्भमें सप्तभंगी और स्याद्वादको न समझकर केवल शब्दसाम्य से एक , नये मतकी सृष्टि की है। यह तो ऐसा ही है जैसे कि चोरसे 'क्या तुम अमुक जगह गये थे? यह पूछनेपर वह कहे कि "मैं नहीं कह सकता कि गया था" और जज अन्य प्रमाणोंसे यह सिद्धकर दे कि चोर अमुक जगह गया था। तब शब्दसाम्य देखकर यह कहना कि जजका फैसला चोरके बयानसे निकला है। संजयवेलठिपुत्तके दर्शनका विवेचन स्वयं राहुलजीने (पृ० ४९१) इन शब्दोंमें किया है For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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