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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्म सिद्धान्त का सम्यग्दर्शन सातामें नोकर्म हो जाती है। रास्तेमें पड़ा हुआ एक पत्थर सैकड़ों जीवोंके सैकड़ों प्रकारके परिणमनमें तत्काल निमित्त बन जाता है, इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उस पत्थर को उत्पन्न करने में उन सैकड़ों जीवोंके पुण्य-पापने कोई कार्य किया है। संसारके पदार्थोकी उत्पत्ति अपने-अपने कारणोंसे होती है। उत्पन्न पदार्थ एक दूसरेकी साता असाताके लिए कारण हो जाते हैं। एक ही पदार्थ समयभेदसे एकजीव या नानाजीवोंके राग द्वेष और उपेक्षाका निमित्त होता रहता है। किसीका कालिक रूप सदा एकसा नहीं रहता। अत: कर्मका सम्यग्दर्शन करके हमें अपने पुरुषार्थको पहिचान कर स्वात्मदष्टि हो तदनुकल सत्पुरुषार्थ में लगना चाहिए। वही पुरुषार्थ सत् है जो आत्मस्वरूप का साधक हो और आत्माधिकारकी मर्यादाको न लांघता हो। संसारके अनन्त अचेतन पदार्थोंका परिणमन यद्यपि उनकी उपादान योग्यताके अनुसार होता है पर उनका विकास पुरुष निमित्तसे अत्यधिक प्रभावित होता है । प्रत्येक परमाणुमें पुद्गलकी वे सब शक्तियाँ है जो किसी भी एक पुदगलाण द्रव्यमें हो सकती हैं अतः उपादान योग्यताकी कमी तो किसीमें भी नहीं है। रह जाती है पर्याययोग्यता, सो पर्याययोग्यता परिणमनोंके अनुसार बदल जायगी। रेत पर्यायसे मामूली कुम्हार आदि निमित्तोंसे घटरूप परिणमनका विकास नहीं हो सकता जैसे कि मिट्टीका हो जाता है पर कांचकी भट्टीमें या चीनी मिट्टीके कारखाने में उसी रेत पर्यायका कांचके घड़े रूपसे और चीनी मिट्टीके घड़े रूपसे स्थिरतर सुन्दर परिणमन विकसित हो जाता है। अचेतन पदार्थोके परिणमन जैसे स्वतः बुद्धिशून्य होने के कारण संयोगाधीन है वैसे चेतन पदार्थोके परिणमन मात्र संयोगाधीन ही नहीं हैं। जबतक यह आत्मा परतन्त्र है तबतक उसे कुछ संयोगाधीन परिणमन करना भी पड़ते हों फिर भी वह उन संयोगोंसे मुक्त होकर उन परिणमनोंसे मुक्ति पा सकते है। चेतन अपनी स्वशक्तिकी तरतमताके अनुसार अपने परिणमनोंमें स्वाधीन बन सकता है । उसमें कर्म अर्थात हमारे पुराने संस्कार तभी तक बाधक हो सकते हैं जबतक हम अपने प्रयोगों द्वारा उनपर विजय नहीं पा लेते। उन पुराने संस्कार और विकारोंसे जो पुद्गलद्रव्य हमारी आत्मासे बंधा था, उसकी अपनी स्वतः सामर्थ्य कुछ नहीं है उसे बल तो हमारे संस्कार और हमारी वासनाओंसे ही प्राप्त होता है। इसके सम्बन्धमें सांख्यकारिकामें बहुत उपयुक्त दष्टान्त वेश्या का दिया है। जिस प्रकार वेश्या हमारी वासनाओंका बल पाकर ही हमें नानाप्रकारसे नचाती है, हम उसके इशारेपर चलते हैं, उसे ही अपना सर्वस्व मानते हैं, चूमते हैं, चाँटते हैं, जैसा वह कहती है वैसा करते हैं। पर जिस समय हम स्वयं वासनानिर्मुक्त होकर स्वरूपदर्शी होते हैं उस समय वेश्या का बल समाप्त हो जाता है और वह हमारी गुलाम होकर हमें रिझाने की चेष्टा करती है, पुनः वासना जाग्रत करनेका प्रयत्न करती है। यदि हम पक्के रहे तो वह स्वयं असफल प्रयत्न होकर हमें छोड़ देती है, और समझती है कि अब इनपर रंग नहीं जम सकता। यही हालत कर्मपुद्गलकी है। वह तो हमारी वासनाओंका बल पाकर ही सस्पन्द होता है। बंधा भी हमारी वासनाओंके कारण ही था और छटेगा या निःसार होगा तो हमारी वासनानिर्मक्त परिणतिसे ही । कर्मका बल हमारी वासना है और वह यदि निर्बल होगा तो हमारी वीतरागतासे ही । शास्त्रोंमें मोहनीयको कर्मोंका राजा कहा है और ममकार तथा अहंकारको मोहराजका मन्त्री । मोह अर्थात् मिथ्यादर्शन, राग और द्वेष। बाह्य पदार्थोंमें ये 'मेरे हैं' इस ममकारसे तथा 'मैं ज्ञानी हूँ' 'रूपवान्' हूँ इत्यादि अहंकारसे राग द्वेषकी सृष्टि होती है और मोहराज की सेना तैयार हो जाती है। जिस समय इस मोहराजका पतन हो जाता है उस समय सेना अपने आप निर्वीर्य होकर तितर बितर हो जाती है । साथ रह गया इन कुभावोंके साथ बंधनेवाला पुद्गल। सो वह तो विचारा पर द्रव्य है । वह यदि आत्मामें पड़ा भी रहा तो भी हानिकारक नहीं। सिद्धशिलापर भी सिद्धोंके पास अनन्त पुद्गलाणु पड़े होंगें पर वे उनमें रागादि उत्पन्न नहीं कर सकते क्योंकि उनमें भीतरसे वे कुभाव नहीं है। अत: मोहनीयके नष्ट होते ही, वीतरागता आते ही वह बंधा हुआ द्रव्य भी झड़ जायगा, या न भी झड़ा वहाँ ही बना रहा तो भी उसमें जो कर्मपना आया है वह समाप्त हो जायगा, वह मात्र पुद्गलपिड रह जायगा। कर्मपना For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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