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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४९९ नवम अध्याय रह भी सकता है। अतः देशविरतमें चारों आर्तध्यान होते हैं। प्रमत्तसंयतके प्रमादके उदयकी अधिकता होनेसे तीन आर्तध्यान कभी कभी होते हैं। रौद्रध्यानका स्वरूप व स्वामीहिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥ ३५ ॥ हिंसा, झूठ, चोरी और विषयसंरक्षण ( विषयोंमें इन्द्रियों की प्रवृत्ति ) इन चार वृत्तियोंसे रौद्रध्यान होता है । इन चार कार्यों के विषयमें सदा विचार करते रहना और इन कार्यों में प्रवृत्ति करना सो रौद्रध्यान है। रौद्रध्यान अविरत और देशविरत गुणस्थानवर्ती जीवोंके होता है। प्रश्न-अविरत जीवके रौद्रध्यानका होना तो ठीक है लेकिन देशविरतके रौद्रध्यान कैसे हो सकता है ? उत्तर-देशविरतके भी रौद्र ध्यान कभी कभी होता है। क्योंकि एकदेशसे विरत होनेके कारण कभी कभी हिंसा आदिमें प्रवृत्ति और धनसंरक्षण आदिकी इच्छा होनेसे देश विरतके रौद्रध्यान होता है। लेकिन सम्यग्दर्शन सहित होनेके कारण इसका रौद्र ध्यान नरकादि गतियोंका कारण नहीं होता है। सम्यग्दर्शन सहित जीव नारकी, तिर्यश्च, नपुंसक और स्त्री पर्यायमें उत्पन्न नहीं होता है तथा दुष्कुल, अल्पायु और दरिद्रताको प्राप्त नहीं करता है। प्रमत्तसंयतके रौद्रध्यान नहीं होता है क्योंकि रौद्रध्यानके होने पर असंयम हो जाता है। धर्मध्यानका स्वरूप व भेदआज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम् ॥ ३६ ॥ आज्ञाविचय अपायविचय विपाकविचय और संस्थानविचय, ये धर्म्यध्यानके चार भेद हैं । आज्ञा, अपाय,विपाक और संस्थान इनके विषयमें चिन्तवन करनेको धर्म्य ध्यान कहते हैं। ___आज्ञाविचय-आप्तवक्ताके न होनेपर, स्वयं मन्दबुद्धि होनेपर, पदार्थों के अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण, हेतु, दृष्टान्त आदिका अभाव होने पर जो आसन्न भव्य जीव सर्वज्ञप्रणीत शास्त्रको प्रमाण मानकर यह स्वीकार करता है कि जैनागममें वस्तुका जो स्वरूप बतलाया वह वैसा ही है, जिनेन्द्र भगवान्का उपदेश मिथ्या नहीं होता है। इस प्रकार अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ के विषयमें जिनेन्द्रकी आज्ञाको प्रमाण मानकर अर्थके स्वरूपका निश्चय करना आनाविचय है। अथवा वस्तुके तत्त्वको यथावत् जाननेपर भी उस वस्तुको प्रतिपादन करनेकी इच्छासे तक, प्रमाण और नयके द्वारा उस वस्तुके स्वरूपका चिन्तवन या प्रतिपादन करना आवाविचय है। अपायविचय--मिथ्यादृष्टि जीव जन्मान्धके समान हैं वे सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत मार्गसे पराङ्मुख रहते हुए भी मोक्षकी इच्छा करते हैं लेकिन उसके मार्गको नहीं जानते हैं। इस प्रकार सन्मार्गके विनाशका विचार करना अपायविचय है । अथवा इन प्राणियोंके मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रका विनाश कैसे होगा इस पर विचार करना अपायविचय है। विपाविचय-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके अनुसार होनेवाले ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के फलका विचार करना विपाकविचय है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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