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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९८-९] नवम अध्याय ४८७ परीषहोंका वर्णनमार्गाच्यवननिर्जरार्थपरिषोढव्याः परीषहाः ॥ ८ ॥ मार्ग अर्थात् संवरसे च्युत न होने के लिये और कर्मोंकी निर्जराके लिये बाईस परीषहों को सहन करना चाहिये । मार्गका अर्थ सम्यग्दर्शन,ज्ञान और चारित्र भी होता है । परीषहों के सहन करनेसे कर्मोका संवर होता है । परीषहजय संवर, निर्जरा और मोक्षका साधन है। क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोधवधयाचनाऽलाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानाऽदर्शनानि ।।९।। क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य, अरति, स्त्रो, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदशन ये बाईस परोषह है। १क्षधा परीषह-जो मुनि निर्दोष आहारको ग्रहण करता है और निर्दोष आहार के न मिलने पर या अल्प आहार मिलनेपर अकाल और अयोग्य देशमें आहारको ग्रहण नहीं करता है, जो छह आवश्यकोंकी हानिको नहीं चाहता, अनेक बार अनशन, अवमौदर्य आदि करनेसे तथा नीरस भोजन करनेसे जिसका शरीर सूख गया है क्षुधाकी वेदना होने पर भी जो क्षुधाको चिन्ता नहीं करता है और भिक्षाके लाभकी अपेक्षा अलाभमें लाभ मानता है, उस मुनिके क्षुधापरीषहजय होता है। २ तृषापरीषह-जो मुनि नदी, वापी, तड़ाग आदिके जलमें नहाने आदिका त्यागी होता है और जिसका स्थान नियत नहीं होता है, जो अत्यन्त क्षार (खारा) आदि भोजन के द्वारा और गर्मी तथा उपवास आदिके द्वारा तीव्र प्यासके लगने पर उसका प्रतिकार नहीं करता और तृषाको संतोषरूपी जलसे शान्त करता है उसके तृषापरोषहजय होता है । ३ शीतपरीषह --जिस मुनिने वस्त्रोंका त्याग कर दिया है, जिसका कोई नियत स्थान नहीं है, जो वृत्तोंके नीचे, पर्वतों पर और चतुष्पथ आदिमें सदा निवास करता है, जो वायु और हिमकी ठंडकको शान्तिपूर्वक सहन करता है, शीतका प्रतिकार करनेवाली अग्नि आदिका स्मरण भी नहीं करता है, उस मुनिके शीत परीषहजय होता है । ५ उष्णपरीषह-जो मुनि वायु और जल रहित प्रदेशमें, पत्तोंसे रहित सूखे वृक्षके नीचे या पर्वतों पर ग्रीष्म ऋतुमें ध्यान करता है, दावानलके समान गर्म वायुसे जिसका कण्ठ सूख गया है और पित्तके द्वारा जिसके अन्तरङ्गमें भी दाह उत्पन्न हो रहा है फिर भी उष्णताके प्रतिकार करनेका विचार न करके उष्णताकी वेदनाको शान्तिपूर्वक सहन करता है उसके उष्णपरीषहजय होता है। ५ दंशमशकपरीषह-जो डांस, मच्छर, चींटी, मक्खी, बिच्छू आदिके काटनेसे उत्पन्न हुई वेदनाको शान्तिपूर्वक सहन करता है उसके दंशमशकपरीषहजय होता है । यहाँ दंश शब्दके ग्रह्णसे ही काम चल जाता फिर भी जो मशक शब्दका ग्रहण किया गया है वह उपलक्षणके लिये है । जहाँ किसी एक पदार्थके कहनेसे तत्सदृश अन्य पदार्थांका भी ग्रहण हो वहाँ उपलक्षण होता है। जैसे किसीने कहा कि "काकेभ्यो घृतंरक्षणीयम्" कौओंसे घृतकी रक्षा करनी चाहिये, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि बिल्ली आदिसे घृतकी रक्षानहीं करनी चाहिये। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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