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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९।१] नवम अध्याय ४८१ ८, ६, १८–अपूर्णकरण, अनिवृत्ति करण और सूक्ष्मसाम्पराय इन तीन गुणस्थानोंमें दो दो श्रेणियाँ होती है एक उपशम श्रेणी और दूसरी क्षपकश्रेणी । जिस श्रेणी में आत्मा मोहनीय कर्मका उपशम करता है वह उपशम श्रेणी है और जिसमें मोहनीय कर्मका क्षय करता है वह क्षपक श्रेणी है। उपशम श्रेणी चढ्नेवाला पुरुष आठवें गुणस्थानसे नवमें, दशमें और ग्यारहवें गुणस्थानमें जाकर पुनः वहाँसे च्युत होकर नीचेके गुणस्थानमें आ जाता है। क्षपक श्रेणी चढ़नेवाला पुरुष आठवें गुणस्थानसे नवमें और दशमें गुणस्थानमें जाता है और इसके बाद ग्यारहवें गुणस्थानको छोड़कर बारहवें गुणस्थानमें जाता है। वहाँ से वह पतित नहीं होता है। ८ अपूर्वकरण-इस गुणस्थानमें उपशमक और क्षपक जीव नूतन परिमाणोंको प्राप्त करते हैं अतः इसका नाम अपूर्वकरण है। इस गुणस्थानमें कर्मका उपशम या क्षय नहीं होता है किन्तु यह गुणस्थान सातवें और नवमें गुणस्थानके मध्यमें है और उन गुणस्थानों में कर्मका उपशम और क्षय होता है अतः इस गुणस्थानमें भी उपचारसे उपशम और क्षय कहा जाता है। जैसे उपचारसे मिट्टीके घटको भी घीका घट कहते हैं । इस गुणस्थानमें एक ही समयमें नाना जीवोंकी अपेक्षा विषम परिणाम होते हैं। और द्वितीय आदि क्षणों में अपूर्व अपूर्व ही परिणाम होते हैं अतः इस गुण स्थानका अपूर्वकरण नाम सार्थक है। ९ अनिवृत्तिवादरसाम्पराय-इस गुणस्थानमें कषायका स्थूलरूपसे उपशम और क्षय होता है तथा एक समयवर्ती उपशमक और क्षपक नाना जीवोंके परिणाम सदृश ही होते हैं अतः इस गुणस्थानका नाम अनिवृत्तिबादरसाम्पराय है । १० सूक्ष्मसाम्पराय-साम्पराय कषायको कहते हैं । इस गुणस्थानमें कषायका सूक्ष्म रूपसे उपशम या क्षय हो जाता है अतः इसका नाम सूक्ष्मसाम्पराय है। ११ उपशान्तमोह-इस गुणस्थानमें मोहका उपशम हो जाता है अतः इसका नाम उपशान्त मोह है। ___१२ क्षीणमोह-इस गुणस्थानमें मोहका पूर्ण क्षय हो जाता है अतः इसका नाम क्षीणमोह है। १३ सयोगकेवली-इस गुणस्थानमें जीव केवलज्ञान और केवलदर्शनको प्राप्त कर लेता है अतः इसका नाम सयोगकेवली है। १४ अयोगकेवली अ, इ, उ, ऋ, ल इन पांच लघु अक्षरों के उच्चारण करने में जितना काल लगता है उतना ही काल अयोगकेवली नामक चौदहवें गुणस्थानका है। अपूर्वकरण गुणस्थानसे क्षीणकषाय गुणस्थानपर्यन्त गुणस्थानोंमें जीवोंके परिणाम उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हैं। मिथ्यात्व गुणस्थानका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है। अभव्य जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्त्व गुणस्थानका उत्कृष्ट काल अनादि और अनन्त है। तथा भव्य जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल अनादि और सान्त है। सासादन गुणस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवली है । मिश्र गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल छयासठ सागर है। देशसंयत गुणस्थानका जघन्य काल एक मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम एकपूर्व कोटि है। प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे क्षीण कषाय पर्यन्त गुणस्थानोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सयोगकेवली गुणस्थानका उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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