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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७८ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार । ८।२५-२६ कर्मरूपसे परिणत पुद्गल परमाणु ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि प्रकृतियों के कारण होते हैं अतः 'नामप्रत्ययाः' कहा है। ऐसे पुद्गल परमाणु संख्यात या असंख्यात नहीं होते हैं किन्तु अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भाग प्रमाण होते हैं अतः 'अनन्तानन्ताः' कहा। ये कमपरमाणु आत्माके समस्त प्रदेशों में व्याप्त रहते हैं । आत्माके एक एक प्रदेशमें अनन्तानन्त पुद्गल स्कन्ध रहते हैं अतः 'सर्वात्मप्रदेशेषु' कहा। ऐसे प्रदेशोंका बन्ध सब कालों में होता है। सब प्राणियों के अतीत भव अनन्तानन्त होते हैं और भविष्यत् भव किसीके संख्यात, किसीके असंख्यात और किसीके अनन्त भी होते हैं। इन सब भवोंमें जीव अनन्तानन्त कमै परमाणुओंका बन्ध करता है अतः 'सर्वतः कहा। यहाँ सर्व शब्दका अर्थ काल है। इस प्रकारके कर्म परमाणुओंका बन्ध योगकी विशेषताके अनुसार होता है अतः 'योगविशेषात्' पद दिया । ये कर्म परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं, आत्माके एक प्रदेशमें अनन्तानन्त कर्म परमाणु स्थिर होकर रहते है अत: 'सूक्ष्मकक्षेत्रावगाहस्थिताः' पद दिया । एक क्षेत्रका अर्थ आत्माका एक प्रदेश है। ये कर्म परमाणु धनाङ्गुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं, एक समय, दो समय, तीन समय श्रादि संख्यात समय और असंख्यात समयकी स्थिति वाले होते हैं । पाँच वर्ण, पाँच रस ( लवण रसका मधुर रसमें अन्तर्भाव हो जाता है ), दो गन्ध और आठ स्पर्शवाले होते है। पुण्य प्रकृतियाँसद्वेधशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ।। २५॥ साता वेदनीय, शुभ आयु,शुभ नाम और शुभ गोत्र ये पुण्य प्रकृतियाँ हैं । तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु ये तीन शुभायु हैं। मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, पाँच शरीर, तीन अङ्गोपाङ्ग, समचतुरस्रसंस्थान, वनवृषभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्ण, प्रशस्त रस, प्रशस्त गन्ध, प्रशस्त स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्ति, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश कीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर प्रकृति ये सैंतीस नाम कर्मकी प्रकृतियाँ शुभ हैं। पाप प्रकृतियाँ-- - अतोऽन्यत् पापम् ॥ २६॥ पुण्य प्रकृतियोंसे अतिरिक्त प्रकृतियाँ पाप प्रकृतियाँ हैं। पांच ज्ञानावरण,नव दर्शनावरण,छब्बीस मोहनीय,पांच अन्तराय,नरकगति,तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रिय पर्यन्त चार जाति, प्रथम संस्थानको छोड़कर पांच संस्थान, प्रथम संहननको छोड़कर पाँच संहनन,अप्रशस्त वर्ण, अप्रशस्त गन्ध, अप्रशस्त रस, अप्रशस्त स्पर्श, तिर्यम्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, उपघात, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्ति, साधारण शरीर,अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशःकीर्ति ये चौतीस नामकर्मकी प्रकृतियाँ, असातावेदनीय, नरकायु और नीच गोत्र ये पापप्रकृतियां हैं। पुण्य और पाप दोनों पदार्थ अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानके द्वारा जाने जाते हैं। अष्टम अध्याय समाप्त For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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