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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [८१२-१३ सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक। जिस शरीरका मुख्य स्वामी एक ही जीव हो लेकिन उसके आश्रित अनेक साधारण जीव रहते हों वह सप्रतिष्ठित प्रत्येक है। और जिस शरीरके आश्रित अनेक जीव न हों वह अप्रतिष्ठित प्रत्येक है। गोम्मटसार जीवकाण्डमें सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येककी पहिचान इस प्रकार बतलाई है। जिनकी शिरा और सन्धिपर्व (गांठ ) अप्रकट हों, जिनका भंग करने पर समान भंग हो जॉय, और दोनों टुकड़ोंमें परस्परमें तन्तु (रेसा) न लगा रहे तथा जो तोड़ने पर भी बढ़ने लगे और जिनके मूल, कन्द, छिलका, कोंपल, टहनी, पत्ता, फूल, फल और बीजोंको तोड़ने पर समान भंग हो उनको सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहते हैं। इसके अतिरिक्त वनस्पतियोंको अप्रति ष्ठित प्रत्येक कहते हैं। जिसके उदयसे दो इन्द्रिय आदि जीवों में जन्म हो उसको त्रस नाम कहते हैं। जिसके उदयसे पृथिवीकाय आदि एकेन्द्रिय जीवों में जन्म हो उसको स्थावर नाम कहते हैं। जिसके उदयसे किसी जीवको देखने या सुननेपर उसके विषयमें प्रीति हो वह सुभगनाम है। जिसके उदयसे रूप और लावण्यसे सहित होनेपर भी जीव दूसरोंको अच्छा न लगे वह तुर्भगनाम है। जिसके उदयसे मनोहर स्वर हो वह सुस्वर नाम है। जिसके उदयसे गधे आदिके स्वरकी तरह कर्कश स्वर हो वह दुर्भगनाम है। जिसके उदयसे शरीर सुन्दर होता है वह शुभनाम है। जिसके उदयसे शरीर असुन्दर होता है वह अशुभ नाम है । जिसके उदयसे सूक्ष्म शरीर होता है वह सूक्ष्म नाम है। जिसके उदयसे स्थूल शरीर होता है वह बादर नाम है। जिसके उदयसे आहार आदि पर्याप्तियोंकी पूर्णता हो उसको पर्याप्ति नाम कहते हैं। जिसके उदयसे पर्याप्ति पूर्ण हुए बिना ही जीव मर जाता है वह अपर्याप्ति नाम है। जिसके उदयसे शरीरकी धातु और उपधातु स्थिर रहें वह स्थिर नाम है। जिसके उदयसे धातु ओर उपधातु स्थिर न रहें वह अस्थिर नाम है। जिसके उदयसे कान्ति सहित शरीर हो वह आदेय नाम है । जिसके उदयसे कान्तिरहित शरीर हो वह अनादेय नाम है। जिसके उदयसे जीवकी संसारमें प्रशंसा हो वह यशःकीर्ति नाम है। जिसके उदयसे जीवकी संसारमें निन्दा हो वह अयशःकीति नाम है और जिसके उदयसे जीव अर्हन्त अवस्थाको प्राप्त करता है वह तीर्थकर नाम है। इस प्रकार नामकर्मके मूल भेद व्यालीस और उत्तर भेद तेरानबे होते हैं। गोत्रकर्मके भेद उच्चैनीचैश्च ॥ १२॥ गोत्र कर्म के दो भेद हैं-उच्चगोत्र और नीचगोत्र । जिसके उदयसे लोकमान्य इक्ष्वाकुवंश, सूर्यवंश, हरिवंश आदि कुलमें जन्म हो उसको उच्चगोत्र कहते हैं। जिसके उदयसे लोकनिन्द्य दरिद्र, भ्रष्ट आदि कुलमें जन्म हो उसको नीचगोत्र कहते हैं। अन्तरायके भेददानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् ॥ १३ ॥ दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ये अन्तरायके पाँच भेद हैं। जिसके उदयसे दानकी इच्छा होनेपर भी जीव दान न दे सके वह दानान्तराय है । जिसके उदयसे लाभ न हो सके वह लाभान्तराय है। जिसके उदयसे इच्छा होने पर भी For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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