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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८1१०-११] आठवाँ अध्याय आयुकर्मके भेद नारकतैर्यग्योनमानु पदैवानि ॥ १० ॥ नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु ये आयुकर्म के चार भेद हैं। जिसके उदयसे जीव नरकके दुःखोंको भोगता हुआ दीर्घ काल तक जीवित रहता है वह नरकायु है । इसी प्रकार जिसके उदयसे जीव तिबन्च मनुष्य देव गतियोंमें जीवित रहता है उसको तिर्यञ्च मनुष्य देव आयुकर्म समझना चाहिये। नामकर्म के भेद-- गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबन्धनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगन्धवर्णानुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरपघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येक शरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययशः कीर्तिसेतराणि तीर्थकरत्वञ्च ॥ ११ ॥ गति, जाति, शरीर, अङ्गोपाङ्ग, निर्माण, बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, आनुपूर्व्य, अगुरुलघु, उपघात,परघात,आतप,उद्योत,उच्छ्वास,विहायोगति, प्रत्येकशरीर, साधारण, प्रस, स्थावर, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, स्थूल, पर्याप्ति, अपर्याप्ति, स्थिर, अस्थिर, आदेय, अनादेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति और तीर्थकर प्रकृति ये नामकर्मके व्यालीस भेद हैं। जिसके उदयसे जीव दूसरे भवको प्राप्त करता है उसको गति नामकर्म कहते है। गतिके चार भेद हैं-१ नरकगति, २ तिर्यञ्चगति, ३ मनुष्यगति और ४ देवगति । जिसके उदयसे जीवमें नरकभाव अर्थात् नारक शरीर उत्पन्न हो, वह नरक गति है । इसी प्रकार तिर्यच आदि गतियोंका स्वरूप समझ लेना चाहिये। जिसके उदय से नरकादि गतियों में जीवों में समानता पाई जाय वह जाति नामकर्म है। जातिके पाँच भेद हैं-१ एकेन्द्रियजाति, २ द्वीन्द्रिय जाति, ३ त्रीन्द्रियजाति, ४ चतुसिंन्द्रयजाति और ५ पञ्चेन्द्रियजाति । जिसके उदयसे जीव एकेन्द्रिय कहा जाता है वह ऐकेन्द्रियजाति है। इसी प्रकार अन्य जातियोंका स्वरूप समझ लेना चाहिये ।। जिसके उदयसे जीवके शरीरकी रचना हो वह शरीर नामकर्म है। इसके पाँच भेद हैं-१ औदारिक, २ वै।क्रयिक, ३ आहारक, ४ तैजस और ५ कार्मण शरीर । जिसके उदयसे अङ्ग और उपाङ्गोंकी रचना हो उसको अङ्गोपाङ्ग नामकर्म कहते हैं। इसके तीन भेद हैं--औदारिक शरीराङ्गोपाङ्ग, २ वैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्ग और ३ आहारक शरीराङ्गोपाङ्ग । तैजस और कार्मण शरीरके अङ्गोपाङ्ग नहीं होते अतः अङ्गोपाङ्ग नामकमक तीन ही भेद हैं। दो हाथ, दो पैर, मस्तक, वक्षस्थल, पीठ और नितम्ब ये आठ अङ्ग हैं तथा ललाट, कान, नाक, नेत्र आदि उपाङ्ग हैं। जिसके उदयसे अङ्गोपाङ्गोंकी यथास्थान और यथाप्रमाण रचना होती है उसको निर्माण नामकर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं-स्थान निर्माण और प्रमाण निर्माण । जिसके उदयसे नाक, कान आदिकी रचना निश्चित स्थान में ही होती है वह स्थान निर्माण है। और जिसके उदयसे नाक, कान आदिकी रचना निश्चित संख्याके अनुसार होती है वह प्रमाण निर्माण है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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