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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . तत्त्वार्थवृत्ति प्रस्तावना करेगा। यह भाषाका एक प्रकार है । साधक अपनी अन्तर्जल्प अवस्थामें अपने ही आत्माको सम्बोधन करता है कि--हे आत्मन्, तू तो स्वभावसे सिद्ध है, बुद्ध है, वीतराग है, आज फिर यह तेरी क्या दशा हो रही है ? तू कषायी और अज्ञानी बना है। यह पहला 'सिद्ध है बुद्ध है' वाला अंश दूसरे 'आज फिर तेरी क्या दशा हो रही है, तू कषायी अज्ञानी बना है इस अंशसे ही परिपूर्ण होता है। इस लिए निश्चयनय हमारे लिए अपने द्रव्यगत मूलस्वभावकी ओर संकेत करता है जिसके बिना हम कषायपंकसे नहीं निकल सकते। अत: निश्चयनयका सम्पूर्ण वर्णन हमारे सामने कागजपर मोटे मोटे अक्षरोंमें लिखा हुआ टॅगा रहे ताकि हम अपनी मूलभूत उस परमदशाको प्राप्त करने की दिशामें प्रयत्नशील रहें। न कि 'हम तो सिद्ध हैं, कोंसे अस्पृष्ट है' यह मानकर मिथ्या अहंकारका पोषण करें और जीवन्तचारित्र्यसे विमुख हो निश्चयकान्तरूपी मिथ्यात्वको बढ़ावें। - निवेदन--मेरा यही निवेदन है कि, हम सब समन्तभद्रादि आचार्यों द्वारा प्रतिपादित उभयमुखी तत्त्वव्यवस्थाको समझें । कुन्दकुन्दके अध्यात्मसे अहंकार और परकर्तत्व भावको नष्ट करें, कार्तिकेयकी भावनासे निर्भयता प्राप्त करें और अनेकान्त दृष्टि और अहिंसाके पुरुषार्थ द्वारा शीघ्र ही आत्मोन्नतिके असीम पुरुषार्थमें जुटें। भविष्यको हम बनाएंगे, वह हमारे हाथमें है। कर्मोके उत्कर्षण अपकर्षण उदीरणा संक्रमण उद्वेलन आदि सभी हम अपने भावोंके अनुसार कर सकते हैं और इसी परम स्वपुरषार्थकी घोषणा हमें इस छन्दमें सुनाई देती है-- "कोटि जन्म तप तपें ज्ञानबिन कर्म झड़ें जे । ज्ञानोके क्षणमें त्रिगुप्तितें सहज टरें ते॥" यह त्रिगुप्ति स्वपुरुषार्थकी सूचना है । इसमें स्वोदयका स्थिर आश्वासन है । नियतिवाद एक अदार्शनिक सिद्धांतोंसे समुत्पन्न काल्पनिक भूत है । इसकी डाढ़ी पकड़कर हिला दीजिये और तत्वव्यवस्थाके दार्शनिक सिद्धांतोंके आधारसे इस श्रोत्रविषसे नई पीढ़ीको बचाइये । यह बड़ा सीधा उपाय है। न इसमें कुछ करना है न विचारना है एक ही बात याद कर लो “जो होना होगा सो होगा ही" भाई, इस बातका भी उपयोग जब तुम्हारा पुरुषार्थ थक जाय तो सांस लेने के लिए कर लो, कुछ हर्ज नहीं, पर यह धर्म नहीं है । धर्म है-स्वपुरुषार्थ, स्वसंशोधन और स्त्रदृष्टि । महावीरके समयमें मक्खलिगोशाल इस नियतिवादका प्रचारक था। आज सोनगढ़से नियतिवादकी आवाज फिरसे उठी है और वह भी कुन्दकुन्दके नामपर। भावनीय पदार्थ जुदा हैं उनसे तत्त्वव्यवस्था नहीं होती यह मैं पहले लिख चुका हूँ। यों ही भारतवर्षने नियतिवाद और ईश्वरवादके कारण तथा कर्मवादके स्वरूपको ठीक नहीं समझने के कारण अपनी यह नितान्त परतन्त्र स्थिति उत्पन्न कर ली थी। किसी तरह अब नव-स्वातन्त्र्योदय हुआ है । इस युगमें वस्तुतत्त्वका वह निरूपण हो जिससे सुन्दर समाजव्यवस्था-घटक व्यक्तिका निर्माण हो। धर्म और आध्यात्मके नामपर और कुन्दकुन्दाचार्यके सनामपर आलस्य-पोषक पुण्य-पापलोपक नियतिवादका प्रचार न हो। हम सम्यक तत्त्वव्यवस्थाको समझे और समन्तभद्रादि आचार्यों के द्वारा परिशीलित उभयमुखी तत्त्वव्यवस्थाका मनन करें। निश्चय और व्यवहार का सम्यग्दर्शन“यस्मात क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्या:" अर्थात् भावशून्य क्रियाएँ सफल नहीं होती। यह भाव क्या है? जिसके बिना समस्त क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं? यह भाव है निश्चयदष्टि । निश्चय नय परनिरपेक्ष आत्मस्वरूपको कहता है । परमवीतरागता पर उसकी दृष्टि रहती है। जो क्रियाएँ इस परमवीतरागताकी साधक और पोषक हों वे ही सफल हैं । पुरुषार्थसिद्धयुपायमें बताया है कि "निश्चयमिह भूतार्थं व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम्।" अर्थात् निश्चयनय भूतार्थ है और व्यवहारनय अभूतार्थ। इस भूतार्थता और अभूतार्थताका क्या अर्थ है ? 'जब आत्मामें इस समय रागद्वेष मोह आदि भाव उत्पन्न हो रहे हैं, आत्मा इन भावों रूपसे परिणमन कर रहा है, तब परनिरपेक्ष सिद्धवत् For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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