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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [७/२१ __ पापोपदेश अनर्थदण्डके चार भेद हैं-क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, बधकोपदेश और श्रारम्भोपदेश । अन्य देशोंसे कम मूल्यमें आनेवाले दासी-दासोंको लाकर गुजरात आदि देशों में बेचनेसे महान् धनलाभ होता है ऐसा कहना क्लेशवणिज्या पापोपदेश है। इस देशके गाय भैस बैल ऊँट आदि पशुओंकी दूसरे देशमें बेचनेसे अधिक लाभ होता इस प्रकार उपदेश देना तिर्यग्वणिज्या पापोपदेश है। पाप कर्मोंसे आजीविका करने वाले धीवर शिकारी आदिसे ऐसा कहना कि उस स्थान पर मछली मृग वराह आदि बहुत हैं बधकोपदेश है। नीच आदमियोंसे ऐसा कहना कि भूमि ऐसे जोती जाती है, जल ऐसे निकाला जाता है, उनमें आग इस प्रकार लगाई जाती है, वनस्पति ऐसे खोदी जाती है इत्यादि उपदेश आरम्भोपदेश है। बिना प्रयोजन पृथिवी कूटना जल सींचना अग्नि जलाना पंखा आदिसे वायु उत्पन्न करना वृक्षोंके फल फूल लता आदि तोड़ना तथा इसी प्रकार के अन्य पाप कार्य करना प्रमादाचरित है। दूसरे प्राणियोंके घातक मार्जार सर्प बाज आदि हिंसक पशु-पक्षियोंका तथा विप कुठार तलवार आदि हिंसाके उपकरणोंका संग्रह और विक्रय करना हिंसादान है। हिंसा राग द्वेष आदिको बढ़ानेवाले शास्त्रोंका पढ़ना पढ़ाना सुनना सुनाना व्यापार करना आदि दुःश्रुति है। इन पाँचों प्रकारके अनर्थदण्डोंका त्याग करना अनर्थदण्ड व्रत है। दिग्वत देशवत और अनर्थदण्डवत ये तीनों अणुव्रतोंकी वृद्धि में हेतु होनेके कारण गुणत्रत कहलाते हैं। समयशब्दसे स्वार्थमें इकण प्रत्यय होनेपर सामायिक शब्द बना है। एकरूपस परिणमन करनेका नाम समय है और समयको ही सामायिक कहते हैं। अथवा प्रयोजन अर्थमें इकण् प्रत्यय करनेसे समय ( एकस्वरूप परिणति ) ही जिसका प्रयोजन हो वह सामायिक है। तात्पर्य यह है कि देववन्दना आदि कालमें विना संक्लेशके सब प्राणियों में समता आदिका चिन्तवन करना सामायिक है। सामायिक करनेवाला जितने काल तक सामायिकमें स्थित रहता है उतने काल तक सम्पूर्ण पापोंकी निवृत्ति हो जानेसे वह उपचारसे महाव्रती भी कहलाता है। लेकिन संयमको घात करनेवाली प्रत्याख्यानावरण कषायके उदय होनेसे वह सामायिक काल में संयमी नहीं कहा जा सकता । सामायिक करनेवाला गृहस्थ परिपूर्ण संयमके बिना भी उपचारसे महाव्रती है जैसे राजपदके बिना भी सामान्य क्षत्री राजा कहलाता है। ___अष्टमी और चतुर्दशीको प्रोषध कहते हैं। स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों के विषयों के त्याग करनेको उपवास कहते हैं । अतः प्रोषध ( अष्टमी और चतुर्दशी ) में उपवास करनेको प्रोषधोपवास कहते हैं । अर्थात् अशन पान खाद्य और लेह्य इन चार प्रकारके आहारका अष्टमी और चतुर्दशीको त्याग करना प्रोषधोपवास है। जो श्रावक सब प्रकारके आरंभ स्वशरीरसंस्कार स्नान गन्ध माला आदि धारण करना छोड़कर चैत्यालय आदि पवित्र स्थानमें एकाग्र मनसे धर्मकथाको कहता सुनता अथवा चिन्तवन करता हुआ उपवास करता है वह प्रोषधोपवासव्रती है। . भोजन पान गन्ध माल्य ताम्बूल आदि जो एक बार भोगनेमें आवें वे उपभोग हैं और आभूषण शय्या घर यान वाहन आदि जो अनेक बार भोगनेमें आवें वे परियोग है। उपभोग और परिभोगके स्थानमें भोग और उपभोगका भी प्रयोग किया जाता है। उपभोग For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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