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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५२ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [७१४-१५ परिणाम हिंसा करने के नहीं है। प्रमादयुक्त व्यक्ति पहिले स्वयं अपनी आत्माका घात करता है बादमें दूसरे प्राणियोंका वध हो चाहे न हो। अतः प्रमत्तयोगसे प्राणों के वियोग करनेको अथवा केवल प्रमत्तयोगको हिंसा करते हैं। प्रमत्तयोगके विना केवल प्राणव्यपरोपण हिंसा नहीं है। असत्यका लक्षण असदभिधानमनृतम् ॥ १४ ॥ प्रमादके योगसे असत् ( अप्रशस्त ) अर्थको कहना अनृत या असत्य है । अर्थात् प्राणियोंको दुःखदायक विद्यमान अथवा अविद्यमान अर्थका वचन असत्य है। जिस प्रकार धनश्री हिंसामें प्रसिद्ध है उसी तरह वसु राजा झूठ में। कर्णकर्कश, हृदयनिष्ठुर, मनमें पीड़ा करनेवाले, विप्रलापयुक्त, विरोधयुक्त, प्राणियोंके वध बन्धन आदिको करानेवाले, वैरकारी, कलह आदि करानेवाले,त्रास करनेवाले गुरु आदिकी अवज्ञा करनेवाले आदि वचन भी असत्य हैं। झूठ बोलनेकी इच्छा और झूठ बोलने के उपाय सोचना भी प्रमत्तयोगके कारण असत्य हैं। प्रमत्तयोगके - अभावमें असत्य वचन भी कर्मबन्धके कारण नहीं होते हैं। चोरीका लक्षण-- अदत्तादानं स्तेयम् ॥ १५ ॥ प्रमत्तयोगसे बिना दी हुई किसी वस्तुको ग्रहण करना चोरी है। अर्थात् जिस वस्तु पर सब लोगोंका अधिकार नहीं है उस वस्तुको ग्रहण करना, ग्रहण करनेकी इच्छा करना अथवा ग्रहण करनेका उपाय सोचना चोरी है। प्रश्न- यदि बिना दी हुई वस्तुके ग्रहण करनेका नाम चोरी है तो कर्म और नोकर्मका ग्रहण भी चोरी कहलायगा क्योंकि कर्म और नोकर्म भी किसीके द्वारा दिए नहीं जाते। उत्तर-जिस वस्तुका देना और लेना संभव हो उसी वस्तु के ग्रहण करनेमें चोरीका व्यवहार होता है। सूत्र में आए हुए 'अदत्त' शब्दका यही तात्पर्य है। यदि दाताका सद्भाव हो तो ग्राहक का अस्तित्व भी पाया जाता है। लेकिन कर्म और नोकर्म वर्गणाओंका कोई स्वामी न होनेसे उनके ग्रहण करनेमें अदत्तादानका प्रश्न ही नहीं होता है । अतः कर्म और नोकर्मका ग्रहण करना चोरी नहीं है। __प्रश्न-ग्राम, नगर आदिमें भ्रमण करनेके समय मुनि रथ्याद्वार ( गलीका द्वार ) आदिमें प्रवेश करते है और रथया आदि स्वामी सहित हैं अतः बिना आज्ञाके प्रवेश करने के कारण मुनियोंको चोरीका दोष लगना चाहिये । उत्तर--प्राम, नगर आदिमें और रथ्याद्वार आदिमें प्रवेश करनेसे मुनियों को चोरीका दोष नहीं लगता है क्योंकि सर्व साधारण के लिये वहाँ प्रवेश करनेकी स्वतन्त्रता है । मुनियों के लिये यह भी विधान है कि बन्द द्वार आदिमें प्रवेश न करें। अतः खुले हुए द्वार आदिमें प्रवेश करनेसे कोई दोष नहीं लगता है। अथवा प्रमत्तयोगसे अदत्तादानका नाम चोरी है और मुनियोंको प्रमत्तयोगके विना रथ्याद्वार आदिमें प्रवेश करनेपर चोरीका दोष नहीं लग सकता है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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