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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सातवाँ अध्याय व्रतका लक्षणहिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥१॥ हिंसा, मूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापोंसे विरक्त होना व्रत है। अभिप्रायपूर्वक किये गये नियमको अथवा कर्तव्य और अकर्तव्य के संकल्पको व्रत कहते हैं। प्रश्न- ध्रुवमपायेऽपदानम्” [ पा० सू. १।४।२४] इस सूत्रके अनुसार अपाय (किसी वस्तुसे किसी वस्तुका पृथक् होना ) होने पर ध्रुव वस्तुमें पञ्चमी विभक्ति होती है और हिंसादिक परिणामों के अध्रुव होनेसे यहाँ पञ्चमी विभक्ति नहीं हो सकती ? उत्तर--वक्ताके अभिप्रायके अनुसार शब्दके अर्थका ज्ञान किया जाता है। यहाँ भी हिंसादि पापोंसे बुद्धिके विरक्त होने रूप अपायके होनेपर हिंसादिकमें ध्रुवत्वकी विवक्षा होनेसे पञ्चमी विभक्ति युक्तिसंगत है। जैसे 'कश्चित् पुमान् .धर्माद्विरमति'- कोई पुरुष धर्मसे विरक्त होता है-यहाँ कोई विपरीत बुद्धिवाला पुरुष मनसे धर्मका विचार करता है कि यह धर्म दुष्कर है, धर्मका फल श्रद्धामात्रगम्य है; इस प्रकार विचार कर वह पुरुष बुद्धिसे धर्मको प्राप्तकर धर्मसे निवृत्त होता है । जिस प्रकार यहाँ धर्मको अध्रुव होनेपर भी पञ्चमी विभक्ति हो गई है उसी प्रकार विवेक बुद्धिवाला पुरुष विचार करता है कि हिंसा आदि पापके कारण हैं और जो पापकर्ममें प्रवृत्त होते हैं उनको इस लोकमें राजा दण्ड देते हैं और परलोकमें भी उनको नरकादि गतियोंमें दुःख भोगने पड़ते हैं, इस प्रकार स्वबुद्धिसे हिंसादिको प्राप्तकर उनसे विरक्त होता है। अतः हिंसादिमें ध्रुवत्वकी विवक्षा होनेसे यहाँ हिंसादिकी अपादान संज्ञा होती है और अपादान संज्ञा होनेसे पञ्चमी विभक्ति भी हुई। व्रतोंमें प्रधान होनेसे अहिंसावतको पहिले कहा है । सत्य आदि व्रत अनाजकी रक्षाके लिये बारीकी तरह अहिंसा व्रतके परिपालनके लिये ही हैं। सम्पूर्ण पापोंकी निवृत्तिरूप केवल सामायिक ही व्रत है और छेदोपस्थापना आदिके भेदसे व्रतके पाँच भेद हैं। प्रश्न-व्रतोंको आस्रवका कारण कहना ठीक नहीं है किन्तु व्रत संवरके कारण हैं। “स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रः [ ९।२] इस सूत्रके अनुसार दशलक्षणधर्म और चारित्र में व्रतोंका अन्तर्भाव होता है। उत्तर--संवर निवृत्तिरूप होता है और अहिंसा आदि बत प्रवृत्तिरूप हैं, अतः ब्रतोंको आस्रवका कारण मानना ठीक है। दूसरी बात यह है कि गुप्ति समिति आदि संवरके परिकर्म हैं। जिस साधुने व्रतोंका अनुष्ठान अच्छी तरहसे कर लिया है वही संवरको सुखपूर्वक कर सकता है । अतः व्रतोंको पृथक् कहा गया है। प्रश्न--रात्रिभोजनत्याग भी एक छठवाँ व्रत है उसको यहाँ क्यों नहीं कहा ? उत्तर--अहिंसा व्रतको पाँच भावनाएँ हैं उनमेंसे एक भावना आलोकितपानभोजन है । अतः आलोकितपानभाजनके ग्रहणसे रात्रिभोजनत्यागका ग्रहण हो जाता है। तात्पर्य यह है कि रात्रिभोजनत्याग अहिंसा व्रतके अन्तर्गत ही है, पृथक् व्रत नहीं है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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