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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२ तस्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना "जीवपरिणामहेदु कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेब जीवो वि परिणमदि ॥ णवि कुव्वदि कम्मपुणे जीवो कम्मं तहेव जीबगुणे । अण्णोण्णणिमित्तण दु कत्ता आदा सएण भावेण ।। पुग्गलकम्मकदाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ।" अथात्-जीवके भावोंके निमित्तसे पूदगलोंकी कर्मरूप पर्याय होती है और पदगलकर्मोके निमित्तसे जीव रागादिरूपसे परिणमन करता है। इतना समझ लेना चाहिए कि जीव उपादान बनकर पुद्गलके गुणरूपसे परिणमन नहीं कर सकता और न पूदगल उपादान बनकर जीवके गणरूपसे परिणति कर सकता है। हाँ, परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धके अनुसार दोनोंका परिणमन होता है। इस कारण उपादान दृष्टि से आत्मा अपने भावोंका कर्ता है पुद्गलके ज्ञानावरणादिरूप द्रव्यकर्मात्मक परिणमनका कर्ता नहीं है। इस स्पष्ट कथनसे कुन्दकुन्दाचार्यकी कर्तृत्व-अकर्तृत्वकी दृष्टि समझमें आ जाती है । इसका विशद अर्थ यह है कि प्रत्येक द्रव्य अपने परिणमनमें उपादान है, दूसरा उसका निमित्त हो सकता है उपादान नहीं। परस्पर निमित्तसे दोनों उपादानोंका अपने अपने भावरूपसे परिणमन होता है। इसमें निमित्त-नैमित्तिकभावका निषेध कहाँ हैं ? निश्चयदष्टिसे परनिरपेक्ष आत्मस्वरूपका विचार है । उसमें कर्तृत्व अपने उपयोगरूपमें ही पर्यंबसित होता है। अत: कुन्दकुन्दके मतसे अध्य त्ममें द्रव्यस्वरूपका वही निरूपण है जो आगे समन्तभद्रादि आचार्योंने अपने ग्रन्थोंमें किया है। मूलमें भल कहां? ---इसमें कहाँ मूलमें भूल हैं ? जो उपादान है वह उपादान ही है, जो निमित्त है वह निमित्त ही है । कुम्हार घटका कर्ता है यह कथन व्यवहार हो सकता है ; कारण, कुम्हार वस्तुतः अपनी हलन-चलनक्रिया तथा अपने घट बनानेके उपयोगका ही कर्ता है, उसके निमित्तसे मिट्टीके परमाणुओम वह आकार उत्पन्न हो जाता है । मिट्रीको धड़ा बनना ही था और कुम्हारके हाथको वैसा होना ही था और हम उसकी व्याख्या ऐसी करनी ही थी, आपको ऐसा प्रश्न करना ही था और हम यह उत्तर देना ही था। ये सब बातें न अनभवसिद्ध कार्यकारणभावके अनकल ही हैं और न तर्कसिद्ध ही। परम स्वपुरुषार्थी कुन्दकुन्दका अध्यात्म--आ० कुन्दकुन्दने अपने आध्यात्ममें यह बताया है कि यद्यपि कार्य निमित्त और उपादान दोनोंसे होता है पर निमित्तको यह अहंकार नहीं करना चाहिये कि "मैंने ऐसा किया।" यदि उपादानकी योग्यता न होती तो निमित्त कुछ नहीं कर सकता था। पर केवल उपादान की योग्यता भी निमित्तके बिना अविकसित रह जाती है। प्रतिसमय विकसित होनेको सैकड़ों योग्यताएँ है। जिसका अनुकूल निमित्त जुट जाता है उसका विकास हो जाता है । यही पुरुषार्थ है। श्री कुन्दकुन्द्र उस निमित्तपनेके अहंकारको निकालने के लिए पर-अकतत्वको भावना पर जोर देते हैं। पर यह नियतिवाद का भूत स्वकर्तृत्वको भी समाप्त कर रहा है । कुन्दकुन्द यह तो कहते ही हैं कि जीव अपने गुणपर्यायोंका कर्ता है। पर इस नियतिवादमें जब सब सुनियत है तब रंचमात्र भी स्वकर्तृत्वको अवकाश नहीं है। कुन्दकुन्द जहां चरित्र दर्शन शील आदि पुरुषार्थों पर भार देकर यह कहते हैं कि इनके द्वारा अपनी आत्मामें बद्ध प्राचीन कर्मोकी निर्जरा करके शीघ्र मुक्त हो सकते हैं। वहां यह नियतिवाद कहता है--कि "शीघ्रताकी बात न करो, सब नियत है, होना होगा, हो जायगा।" कुन्दकुन्दकी दृष्टि तो यह है कि हम परकत त्वका आरोप करकेही राग द्वेष मोहकी सृष्टि करते हैं। यदि हम यह समझ ले कि हम यदि किसीके परिणमनमें निमित्त हुए भी हैं तो इतने मात्रसे उसके स्वामी नहीं हो सकते, स्वामी तो उपादान ही होगा जिसका कि विकास हुआ है तो सारे झगड़े ही समाप्त हो जाय । पर इसका यह अर्थ तो कदापि नहीं है जो स्वपु रुषार्थ या स्वकर्तृत्व की भी स्वतन्त्रता नहीं है। अध्यात्मको अकर्तृत्व भावनाका उपयोग-तब अध्यात्मशास्त्रकी अकर्तृत्वभावनाका क्या अर्थ है ? अध्यात्ममें समस्त वर्णन उपादानयोग्यताके आधारसे किया गया है। निमित्त मिलानेपर भी यदि उपादान For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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