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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५।२३-२४ ] पश्चम अध्याय ४२५ अपेक्षासे ही हुआ । इसी प्रकार सब पदार्थों में परिणमन काल द्रव्यके कारण ही होता है। कालद्रव्य निष्क्रिय होकर भी निमित्तमात्रसे सब द्रव्योंकी वर्तना ( क्रिया ) में हेतु होता है। एक पर्यायकी निवृत्ति होकर दूसरे पर्यायकी उत्पत्ति होनेका नाम परिणाम है। जीवका परिणाम क्रोध, मान, माया लोभादि,है। पुद्गलका परिणाम वर्णादि है। धर्म,अधर्म औ आकाशका परिणाम अगुरुलघु गुणोंकी वृद्धि हानिसे होता है। हलन-चलन का नाम क्रिया है । क्रियाके दो भेद हैं--प्रायोगिकी और वैससिकी। शकट (गाड़ी) आदिमें क्रिया दूसरों द्वारा होती है। इसको प्रायोगिकी क्रिया कहते हैं । मेध आदिमें क्रिया स्वभावसे ही होती है । इसको वस्रसिकी क्रिया कहते हैं छोटे और बड़ेके व्यवहारको परत्वापरत्व कहते हैं। क्षेत्र और कालकी अपेक्षासे परत्वापरत्व व्यवहार होता है लेकिन यहाँ कालका प्रकरण होनेसे कालकृत परत्वापरत्वका ही ग्रहण किया गया है । कालकृत परत्वापरत्वसे समीप देशवर्ती और व्रतादि गुणोंसे रहित वृद्ध चाण्डालको बड़ा और दूर देशवर्ती व्रतादिगुणोंसे सम्पन्न ब्राह्मण बालकको छोटाकहते हैं। परिणाम, क्रिया, परत्वापरत्व, आवली, घड़ी, घण्टा, दिन आदिका कारण व्यवहारकाल है। सूर्यादिकी क्रियासे जो समय, आवली आदिका व्यवहार होता है वह व्यवहार कालकृत है । एक पुद्गल परमाणुको आकाशके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशमें जानेमें जो काल लगता है उसका नाम समय है और उस समयका कारण मुख्य काल है। व्यवहार में भूत, भविष्यत् आदि व्यवहार मुख्यतया होते हैं । । यद्यपि परिणाम आदि वर्तनाके ही विशेष या भेद हैं लेकिन काल द्रव्यके मुख्य और व्यवहार ये दो भेद बतलाने के लिये सबका ग्रहण किया गया है। मुख्यकाल वर्तना रूप है। और व्यवहारकाल परिणाम, क्रिया और परत्वापरत्वरूप है। पुद्गलका स्वरूपस्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ॥ २३ ॥ पदगल में स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये चार गुण पाये जाते हैं। कोमल, कठोर. हलका, भारी, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष ये स्पर्शके पाठ भेद हैं । खट्टा, मीठा, कड़आ, कषायला और चरपरा ये रसके पाँच भेद हैं,लवण रसका सभी रसों में अन्तर्भाव है। सुगन्ध और दुर्गन्ध ये गन्धके दो भेद हैं । काला, नीला, पीला, लाल और सफेद ये वर्ण के पाँच भेद हैं । इनके भी संख्यात, असंख्यात और अनन्त उत्तर भेद होते हैं । जिन अग्नि आदिमें रस आदि प्रकट नहीं हैं वहाँ स्पर्शकी सत्ताद्वारा शेषका अनुमान कर लेना चाहिए। यद्यपि "रूपिणः पुद्गलाः" इस पूर्वोक्त सूत्रसे ही पुद्गलके रूप रसादि वाले स्वरूपका ज्ञान हो जाता है लेकिन वह सूत्र पुद्गलको रूप रहित होनेकी आशंकाके निवारण के लिये कहा गया था। 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' इस सूत्रसे पुद्गल में भी अरूपित्वकी आशंका थी। अतः यह सूत्र पुद्गलका पूर्ण स्वरूप बतलानेके लिये है, निरर्थक नहीं है। पुद्गलकी पर्यायेंशब्दवन्धसौम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्तश्च ॥ २४ ॥ पुद्गल द्रव्यमें शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, छाया, तम, आतप और उद्योत रूपसे परिणमन होता रहता है अर्थात् ये पुद्गलकी पर्यायें हैं। शब्दके दो भेद हैं For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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