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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२२ तत्त्वार्थवृत्ति-हिन्दी-सार [५।१८ करना धर्म द्रव्यका उपकार और पुद्गलोंको ठहरनेमें सहायता देना अधर्म द्रव्यका उपकार है ऐसा विपरीत अर्थ भी हो जाता । अतः इस भ्रमको दूर करनेके लिये सूत्रमें उपग्रह शब्दका होना आवश्यक है। प्रश्न--धर्म और अधर्म द्रव्यका जो उपकार बतलाया है वह आकाशका ही उपकार है क्योंकि आकाशमें ही गति और स्थिति होती है। उत्तर-आकाश द्रव्यका उपकार द्रव्योंको अवकाश देना है। इसलिये गति और स्थितिको आकाशका उपकार मानना ठीक नहीं है । एक द्रव्यके अनेक प्रयोजन मानकर यदि धर्म और अधर्म द्रव्यका अस्तित्व स्वीकार न किया जाय तो लोक और अलोकका विभाग नही हो सकेगा। इन्हीं दो द्रव्यों के कारण ही यह विभाग बन पाता है । प्रश्न-धर्म और अधर्म द्रव्यका प्रयोजन पृथिवी, जल आदिसे ही सिद्ध हो जाता है इसलिये इनके माननेकी कोई आवश्यकता नहीं है। . उत्तर-पृथिवी, जल आदि गति और स्थिति के विशेष कारण हैं। लेकिन इनका कोई साधारण कारण भी होना चाहिये । इसलिये धर्म और अधर्म द्रव्यका मानना आवश्यक हैं क्योंकि ये गति और स्थिति में सामान्य कारण होते हैं। धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थितिमें प्रेरक नहीं होते किन्तु सहायक मात्र होते है अतः ये परस्परमें गति और स्थितिका प्रतिबन्ध नहीं कर सकते ।। प्रश्न-धर्म और अधर्म द्रव्यकी सत्ता नहीं है क्योंकि इनकी उपलधि नहीं होती है। ___ उत्तर-ऐसा कोई नियम नहीं है कि जिस वस्तुकी प्रत्यक्षसे उपलधि हो वही वस्तु सत् मानी जाय । सब मतावलम्बी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकारके पदार्थोंको मानते हैं। धर्म अधर्म द्रव्य अतीन्द्रिय होनेसे यद्यपि हम लोगोंको प्रत्यक्ष नही होते हैं लेकिन सर्वज्ञ तो इनका प्रत्यक्ष करते ही हैं । श्रुतज्ञानसे भी धर्म और अधर्म द्रव्यकी उपलब्धि होती है। आकाशका उपकार आकाशस्यावगाहः ॥ १८ ॥ समस्त द्रव्योंको अवकाश देना आकाशका उपकार है। प्रश्न-क्रियावाले जीव और पुद्गलोंको अवकाश देना तो ठीक है लेकिन निष्क्रिय धर्मादि द्रव्योंको अवकाश देना तो संभव नहीं है। उत्तर-पद्यपि धर्म आदिमें अवगाहन क्रिया नहीं होती है लेकिन उपचारसे वे भी अवगाही कहे जाते हैं। धर्म आदि द्रव्य लोकाकाशमें सर्वत्र व्याप्त है इसलिये व्यवहारनयस इनका अवकाश मानना उचित ही है। प्रश्न-यदि आकाशमें अवकाश देनेकी शक्ति है तो दीवालमें गाय आदिका और वन में पत्थर आदिका भी प्रवेश हो जाना चाहिये। उत्तर-स्थुल होने के कारण उक्त पदार्थ परस्परका प्रतिघात करते हैं। यह आकाश का दोष नहीं है किन्तु उन्हीं पदार्थोंका है। सूक्ष्म पदार्थ परस्पर में अवकाश देते हैं इसलिये प्रतिघात नहीं होता। इससे यह भी नहीं समझना चाहिये कि अवकाश देना पदार्थोंका काम है आकाशका नहीं, क्योंकि सब पदार्थों को अवकाश देनेवाला एक साधारण कारण . आकाश मानना आवश्यक है। यद्यपि आलोकाकाशमें अन्य द्रव्य न होनेसे आकाशका अवकाशदान लक्षण वहाँ नहीं बनता लेकिन अवकाश देनेका स्वभाव वहाँ भी रहता है इसलिये आलोकाकाश अवकाश न दने पर भी आकाश ही. है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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