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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१७ ५।३-४] पञ्चम अध्याय समानाधिकरण होनेसे द्रव्य शब्दको बहुवचन कहा है लेकिन समानाधिकरणके कारण द्रव्य शब्द पुल्लिङ्ग नहीं हो सकता क्योंकि द्रव्य शब्द सदा नपुंसक लिङ्ग है। जीवाश्च ॥ ३ ॥ जीव भी द्रव्य है। आगे कालको भी द्रव्य बतलाया है। इस प्रकार धर्म, अधर्म, आकाल, पुद्गल, जीव और काल ये छह द्रव्य हैं। प्रश्न-आगे 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' इस सूत्रमें द्रव्यका लक्षण बतलाया है। इसीसे यह सिद्ध हो जाता है कि धर्म आदि द्रव्य हैं। फिर यहाँ द्रव्योंकी गणना करना ठीक नहीं है ? ____उत्तर-यहाँ द्रव्योंकी गणना इसलिये की गई है कि द्रव्य छह ही हैं । अन्य लोगोंके द्वारा मानी गयी द्रव्यकी संख्या ठीक नहीं है। . - नैयायिक पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन ये नव द्रव्य मानते हैं। यह संख्या ठीक नहीं है ; पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और मनका पुद्गल द्रव्यमें अन्तर्भाव हो जाता है। जिनेन्द्र देवने पुद्गल द्रव्यके छह भेद बतलाए है- अतिस्थूल, स्थूलस्थूल, स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मसूक्ष्म । इनके क्रमशः उदाहरण ये हैं-पृथिवी, जल, छाया, नेत्रके सिवाय शेष चार इन्द्रियोंके विषय, कर्म और परमाणु । प्रश्न - पुद्गलद्रव्यमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पाये जाते हैं। वायु और मनमें रूप आदि नहीं हैं । अतः पुद्गलमें इनका अन्तर्भाव कैसे होगा ? उत्तर-वायुमें भी रूप आदि चारों गुण पाये जाते हैं । वायुमें नैयायिकके मतके अनुसार स्पर्श है ही और स्पर्श होनेसे रूपादि गुणोंको भी मानना पड़ेगा। जहाँ स्पर्श हैं वहाँ शेष गुण होना ही चाहिए । ऐसा भी कहना ठीक नहीं कि वायुमें रूप है तो वायुका प्रत्यक्ष होना चाहिये; क्योंकि परमाणु में रूप होने पर भी उसका प्रत्यक्ष नहीं होता। इसी प्रकार जल, अग्नि आदिमें स्पर्श आदि चारों गुण पाये जाते हैं । चारोंका परस्पर अविनाभाव है। ___मनके दो भेद हैं-द्रव्यमन और भावमन । द्रव्यमनका पुद्गल में और भावमनका जीवमें अन्तर्भाव होता है । द्रव्यमन रूपादियुक्त होनेसे पुद्गलद्रव्यका विकार है । द्रव्यमन ज्ञानोपयोगका कारण होनेसे रूपादि युक्त (मूर्त ) है । शब्द भी पौद्गलिक होनेसे मूर्त ही है अतः नैयायिकका ऐसा कहना कि जिस प्रकार शब्द अमूर्त होकर ज्ञानोपयोगमें कारण होता है उसी प्रकार द्रव्यमन भी अमूर्त होकर ज्ञानोपयोगमें कारण हो जायगा ठीक नहीं है। प्रत्येक द्रव्यके पृथक् पृथक् परमाणु मानना भी ठीक नहीं है । जलके परमाणु पृथिवीरूप भी हो सकते हैं और पृथिवीके परमाणु जलरूप भी । जिस प्रकार वायु आदिका पुद्गल में अन्तर्भाव हो जाता है उसी प्रकार दिशाका आकाशमें अन्तर्भाव हो जाता है ; क्योंकि सूर्यके उदयादिकी अपेक्षा आकाशके प्रदेशोंकी पंक्ति में पूर्व आदि दिशाका व्यवहार किया जाता है । नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥ ४ ॥ जीव आदि सभी द्रव्य नित्य, अवस्थित और अरूपी हैं। ये द्रव्य कभी नष्ट नहीं होते हैं इसलिये नित्य हैं । इनकी संख्या सदा छह ही रहती है अथवा ये कभी भी अपने अपने प्रदेशोंको नहीं छोड़ते हैं इसलिये अवस्थित हैं। द्रव्यों में नित्यत्व और अवस्थित व द्रव्यनयकी अपेक्षासे है । इन द्रव्यों में रूप, रस आदि नहीं पाये जाते इसलिये अरूपी हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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