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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना नियतिवाद-दृष्टिविष-एकबार 'ईश्वरवाद'के विरुद्ध छात्रोंने एक प्रहसन खेला था। उसमें एक ईश्वरवादी राजा था, जिसे यह विश्वास था कि ईश्वरने समस्त दुनियाके पदार्थों का कार्यक्रम निश्चित कर दिया है। प्रत्येक पदार्थकी अमुक समयमें यह दशा होगी इसके बाद यह,सब सुनिश्चित है । कोई अकार्य होता तो राजा सदा यह कहता था कि-'हम क्या कर सकते हैं ? ईश्वरने ऐसा ही नियत किया था। ईश्वरके नियतिचक्रमें हमारा हस्तक्षेप उचित नहीं “ईश्वरकी मर्जी" । एकबार कुछ गुण्डोंने राजाके सामने ही रानीका अपहरण किया। जब रानीने रक्षार्थ चिल्लाहट शुरू की और राजाको क्रोध आया तब गुण्डोंके सरदारने जोरसे कहा-"ईश्वरकी मीं"। राजाके हाथ ढीले पड़ते हैं और वे गुण्डे रानीको उसके सामने ही उठा ले जाते हैं। गुण्डे रानीको भी समझाते हैं कि 'ईश्वरकी मर्जी यही थी' रानी भी 'विधिविधान' में अटल विश्वास रखती थी और उन्हें आत्म समर्पण कर देती है। राज्यमें अव्यवस्था फैलती है और परचक्रका आत्रमण होता है और राजाकी छाती में दुश्मनकी जो तलवार घुसती है वह भी 'ईश्वरकी मर्जी इस जहरीले विश्वासविषसे बुझी हुई थी और जिसे राजाने विधिविधान मानकर ही स्वीकार किया था। राजा और रानी गुण्डों और शत्रुओंके आक्रमणके समय "ईश्वरकी मर्जी" "विधिका विधान" इन्हीं ईश्वरास्त्रोंका प्रयोग करते थे और ईश्वरसे ही रक्षाकी प्रार्थना करते थे। पर न मालूम उस समय ईश्वर क्या कर रहा था ? ईश्वर भी क्या करता ? गुण्डे और शत्रुओंका कार्यक्रम भी उसीने बनाया था और वे भी 'ईश्वरकी मर्जी' और 'विधिविधान'की दुहाई दे रहे थे। इस ईश्वरवादमें इतनी गुंजाइश थी कि यदि ईश्वर चाहता तो अपने विधानमें कुछ परिवर्तन कर देता। आज श्री कानजी स्वामीकी 'वस्तुविज्ञानसार' पुस्तकको पलटते समय उस प्रहसनकी याद आ गई और ज्ञात हुआ कि यह नियतिवादका कालकूट 'ईश्वरवाद'से भी भयंकर है। ईश्वरवादमें इतना अवकाश है कि यदि ईश्वरकी भक्तिकी जाय या सत्कार्य किया जाय तो ईश्वरके विधानमें हेरफेर हो जाता है। ईश्वर भी हमारे सत्कर्म और दुष्कर्मों के अनुसार ही फलका विधान करता है। पर यह नियतिवाद अभेद्य है। आश्चर्य तो यह है कि इसे 'अनन्त पुरुषार्थ'का नाम दिया जाता है। यह कालकूट कुन्दकुन्द, अध्यात्म, सर्वज्ञ, सम्यग्दर्शन और धर्मकी शक्करमें लपेट कर दिया जा रहा है। ईश्वरवादी सांपके जहरका एक उपाय (ईश्वर) तो है पर इस नियतिवादी कालकूटका इस भीषण दष्टिविषका कोई उपाय नहीं ; क्योंकि हर एक द्रव्यकी हर समयकी पर्याय नियत है । मन्ति वेदना तो तब होती है जब इस मिथ्या एकांत विषको अनेकान्त अमृतके नामसे कोमलमति नई पोद्दीको पिलाकर उन्हें अनन्त पुरुषार्थी कहकर सदाके लिए पुरुषार्थसे विमुख किया जा रहा है। पुण्य और पाप क्यों?-जब प्रत्येक जीवका प्रतिसमयका कार्यक्रम निश्चित है, अर्थात् परकर्तत्व तो है ही नहीं, साथ ही स्वकर्तृत्व भी नहीं है तब क्या पुण्य और क्या पाप ? किसी मुसलमानने जनप्रतिमा तोड़ी, तो जब मुसलमानको उस समय प्रतिमाको तोड़ना ही था, प्रतिमाको उस समय टटना ही था, सब कुछ नियत था तो विचारे मुसलमान का क्या अपराध ? वह तो नियतिचक्रका दास था। एक याज्ञिक ब्राह्मण बकरेकी बलि चढ़ाता है तो क्यों उसे हिंसक कहा जाय--'देवीकी ऐसी ही पर्याय होनी थी, बकरेके गलेको कटंना ही था, छुरेको उसकी गर्दनके भीतर घुसना ही था. ब्राह्मणके मुंहमें मांस जाना ही था, वेदमें ऐसा लिखा ही जाना था । इस तरह पूर्वनिश्चित योजनानसार जब घटनाएँ घट रही हैं तब उस विचारेको क्यों हत्यारा कहा जाय ? हत्याकाण्ड रूपी घटना अनेक द्रव्योंके मनिश्चित परिणमनका फल है। जिस प्रकार ब्राह्मणके छुरेका परिणमन बकरेके गलेके भीतर घुसनेका नियत था उसी प्रकार बकरेके गलेका परिणमन भी अपने भीतर छुरा घुसवानेका निश्चित था। जब इन दोनों नियत घटनाओंका परिणाम बकरेका बलिदान है तो इसमें क्यों ब्राह्मणको हत्यारा कहा जाय ? किसी स्त्रीका शील भ्रष्ट करनेवाला व्यक्ति क्यों दुराचारी गुण्डा कहा जाय ? स्त्रीका परिणमन ऐसा ही होना था और पुरुषका भी ऐसा ही, दोनों के नियत परिणमनोंका नियत मेलरूप दुराचार भी नियत हो या फिर उसे गुण्डा और दुराचारी क्यों कहा जाय ? इस तरह इस श्रोत्र विषरूप (जिसके सुननेसे ही For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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