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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३८४ तार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ ३|१० जघन्य भोगभूमि में शरीर की ऊँचाई एक कोश, एकपल्यकी आयु और प्रियङ्गुके समान श्यामवर्ण शरीर होता है । वहाँ के प्राणी एक दिन के बाद आँवला प्रमारण भोजन करते हैं । श्रयुके नव मास शेष रहने पर गर्भ से स्त्री पुरुष युगल पैदा होते हैं। नवीन युगलके उत्पन्न होते ही पूर्व युगल का छींक और जँभाईसे मरण हो जाता है। उनका शरीर बिजली के समान विघटित हो जाता है । नूतन युगल अपने अँगूठे को चूँसते हुये सात दिन तक सीधे सोता रहता है । पुनः सात दिन तक पृथिवीपर सरकता है। इसके बाद सात दिनतक मधुर वाणी बोलते हुये पृथिवीपर लड़खड़ाते हुये चलता है। चौथे सप्ताह में अच्छी तरह चलने लगता है । पाँचवें सप्ताह में कला और गुणों को धारण करनेके योग्य हो जाता है। छठवें सप्ताह में तरुण होकर भोगोंको भोगने लगता है । और सातवें सप्ताह में सम्यक्त्वको ग्रहण करने के योग्य हो जाता है । सब युगल दश कोश ऊँचे दश प्रकार के कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न भोगों को भोगते हैं । भोगभूमि के जीव आर्य कहलाते हैं क्योंकि वहाँ पुरुष स्त्रीको आर्या और पुरुष को आर्य कहकर बुलाती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मद्यांग जातिके कल्पवृक्ष मद्यको देते हैं । मद्यका तात्पर्य शराब या मदिरा से नहीं है किन्तु दूध, दधि, घृत, आदिसे बनी हुई सुगन्धित द्रव्यको कामशक्तिजनक होनेसे मद्य कहा गया है। २ वादित्राङ्ग जातिके कल्पवृक्ष मृदंग, भेरी, वीणा आदि नाना प्रकार के बाजों को देते हैं । ३ भूषणाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष हार, मुकुटु कुण्डल आदि नाना प्रकार के आभूषणों को देते हैं। ४ माल्याङ्ग नामके कल्पवृक्ष अशोक, चम्पा, पारिजात आदिके सुगन्धित पुष्प, माला आदि को देते हैं । ५ ज्योतिरङ्ग जाति के कल्पवृक्ष सूर्यादिकके तेज को भी तिरस्कृत कर देते हैं । ६ दीपाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष नाना प्रकार के दीपकों को देते हैं जिनके द्वारा लोग घरों के अन्दर अन्धकार युक्त स्थानों में प्रकाश करते हैं । ६ गृहाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष प्राकार और गोपुर युक्त रत्नमय प्रासादोंका निर्माण करते हैं । ८ भोजनाङ्ग कल्पवृक्ष छह रस युक्त और अमृतमय दिव्य आहार को देते हैं । ९ भाजनाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष मणि और सुवर्ण थाली, घड़ा आदि बर्तनों को देते हैं । १० वस्त्राङ्ग जातिके कल्पवृक्ष नाना प्रकारक सुन्दर और सूक्ष्म वस्त्रों को देते हैं । वहाँपर अमृत के समान स्वादयुक्त अत्यन्त कोमल चार अङ्गुल प्रमाण घास होती है जिसको गायें चरती हैं । वहाँ की भूमि पञ्चरत्नमय है । कहीं कहीं पर मणि और सुवर्णमय क्रीड़ा पर्वत हैं । वापी, सरोवर और नदियों में रत्नों की सीढ़ियाँ लगी हैं। वहाँ पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च मांस नहीं खाते और न परस्पर में विरोध ही करते हैं । वहाँ विकलत्रय नहीं होते हैं। कोमल हृदयवाले, मन्दकषायी, और शीलादिसंयुक्त मनुष्य ऋषियों को आहारदान देनेसे और तिर्यश्च उस आहारकी अनुमोदना करनेसे भोग भूमि में उत्पन्न होते हैं । सम्यग्दृष्टी जीव वहाँ से मरकर सौधर्म - ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं । महाहिमवान् और निषेध पर्वत तथा पूर्व और पश्चिम समुद्र के बीच में हरि क्षेत्र है । इसके मध्य में वेदाढ्य नामका पटहाकार पर्वत है । हरि क्षेत्र में मध्यम भोग भूमिकी रचना है। मध्यम भोगभूमि में शरीर की ऊँचाई दो कोश, आयु दो पल्य और वर्ण चन्द्रमा के For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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