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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७२ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [२।२५-२७ असंज्ञी होते हैं । संज्ञियों के शिक्षा, शब्दार्थग्रहण आदि क्रिया होती है। यद्यपि असंज्ञियाँ के आहार, भय,मैथुन और परिः ये चार संज्ञाएँ होती हैं तथा इच्छा प्रवृत्ति आदि होती हैं फिर भी शिक्षा, शब्दार्थग्रहण आदि क्रिया न होने से वे संज्ञो नहीं कहलाते । विग्रहगतिमें गमनके कारणको बतलाते हैं विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥२५॥ विग्रहगतिमें कार्मण काययोग होता है। विग्रह शरीरको कहते हैं। नवीन शरीरको ग्रहण करनेके लिये जो गति होती है वह विग्रहगति है। आत्मा एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरको ग्रहण करनेके लिये कार्मण काययोगके निमित्त से गमन करता है।। अथवा विरुद्ध ग्रहणको विग्रह कहते हैं अर्थात् कर्मका ग्रहण होने पर भी नोकर्म हैं के अग्रहणको विग्रह कहते हैं। और विग्रह होनेसे जो गति होती है वह विग्रहगति कहलाती है। सर्वशरीरके कारणभूत कार्मण शरीरको कर्म कहते हैं। और मन, वचन, काय वर्गणाके निमित्तसे होनेवाले आत्माके प्रदेशोंके परिस्पन्दका नाम योग है। अर्थात विग्रह रूपसे गति होने पर कर्मोंका आदान और देशान्तरगमन दोनों होते हैं। जीव और पुद्गलके गमनके प्रकारको बतलाते हैं अनुश्रेणि गतिः ॥२६॥ जीव और पुद्गलका गमन श्रेणीके अनुसार होता है। लोकके मध्यभागसे ऊपर, नीचे तथा तिर्यक् दिशामें क्रमसे सन्निविष्ट आकाशके प्रदेशोंकी पंक्तिको श्रेणी कहते हैं। प्रश्न-यहाँ जीव द्रव्यका प्रकरण होनेसे जीवकी गतिका वर्णन करना तो ठीक है लेकिन पुद्गलकी गतिका वर्णन किस प्रकार संगत है ? उत्तर-'विग्रहगतौ कर्मयोगः' इस सूत्र में गतिका ग्रहण हो चुका है। अतः इस सूत्रमें पुनः गतिका ग्रहण, और आगामी 'अविग्रहा जीवस्य' सूत्रमें जीव शब्दका ग्रहण इस बातको बतलाते हैं कि यहाँ पुगलकी गतिका भी प्रकरण है। प्रश्न-ज्योतिषी देवों तथा मेरुकी प्रदक्षिणाके समय विद्याधर आदिकी गति श्रेणीके अनुसार नहीं होती है। अतः गतिको अनुश्रेणि बतलाना ठीक नहीं हैं। • उत्तर-नियत काल और नियत क्षेत्रमें गति अनुश्रेणि बतलायी है। कालनियम-- संसारी जीवोंकी मरणकालमें भवान्तर प्राप्तिके लिये और मुक्त जीवोंकी ऊर्ध्वगमन कालमें जो गति होती है वह अनुश्रेणि ही होती है । देशनियम-ऊर्ध्वलोकसे अधोगति, अधोलोकसे ऊर्ध्वगति, तिर्यग्लोकसे अधोगति अथवा ऊर्ध्वगति अनुश्रेणि ही होती है। पुद्गलोंकी भी जो लोकान्त तक गति होती है वह अनुश्रेणि ही होती है। अन्य गति का कोई नियम नहीं है। मुक्त जीव की गति अविग्रहा जीवस्य ॥ २७॥ ___ मुक्त जीवकी गति विग्रहरहित अर्थात् सीधी होती है । मोड़ा या वक्रताको विग्रह कहते हैं । यद्यपि इस सूत्रमें सामान्य जीवका ग्रहण किया गया है फिर भी आगामी "विग्रह For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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