SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 460
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय १६] ३४९ शुक्ल वस्तु बलाका (बकपंक्ति ) होना चाहिए । अथवा ध्वजा होना चाहिए। ईहा ज्ञानको संशय नहीं कह सकते क्योंकि यथार्थमें ईहामें एक वस्तुके ही निर्णयकी इच्छा रहती है जैसे यह बलाका होना चाहिये। विशेष चिन्होंको देखकर उस वस्तुका निश्चय कर लेना अवाय है। जैसे उड़ना, पंखोंका चलाना आदि देखकर निश्चय करना कि यह बलाका ही है। अवायसे जाने हुये पदार्थको कालान्तरमें नहीं भूलना धारणा है। धारणा ज्ञान स्मृतिमें कारण होता है। मतिज्ञानके उत्तरभेदबहुबहुविधक्षिप्रानिःसृताऽनुक्तध्रुवाणां सेतराणाम् ॥ १६॥ बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और ध्रुव तथा इनसे उलटे एक, एकविध, अक्षिण, निःसृत, उक्त और अघुव इन बारह प्रकारके अर्थोंका अवग्रह आदि ज्ञान होता है। ___ एक ही प्रकारके बहुत पदार्थोंका नाम बहु है । बहु शब्द संख्या और परिमाणको बतलाता है जैसे 'बहुत आदमी' इस वाक्यमें बहुत शब्द दो से अधिक संख्याको बतलाता है । और 'बहुत दाल भात' यहाँ बहुशब्द परिमाणवाची है । अनेक प्रकारके पदार्थोंको वहुविध कहते हैं । जिसका ज्ञान शीव हो जाय वह क्षिप्त है। जिस प्रदार्थके एकदेशको देखकर सर्वदेशका ज्ञान हो जाय वह अनिःसृत है। वचनसे विना कहे जिस वस्तुका ज्ञानहो जाय यह अनुक्त है। बहुत काल तक जिसका यथार्थज्ञान बना रहे वह ध्रुव है। एक पदार्थ को एक और एक प्रकार के पदार्थोंको एकविध कहते हैं । जिसका ज्ञान शीघ्र न हो वह अक्षित है। प्रकट पदार्थों को निःसत कहते हैं । वचन को सुनकर अर्थ का ज्ञान होना उक्त है। जिसका ज्ञान बहुत समय तक एकसा न रहे वह अधू व है। उक्त बारह प्रकार के अर्थों के इन्द्रिय और मनके द्वारा अवग्रह आदि चार ज्ञान होते हैं। अतः मतिज्ञानके १२४४४६=२८८ भेद हुये। यह भेद् अर्थावग्रहके हैं। व्यञ्जनावग्रहके ४८ भेद आगे बतलाये जॉयगे। इस प्रकार मतिज्ञानके कुल २८८४४८=३३६ भेद होते हैं। ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमके प्रकर्षसे बहु आदिका ज्ञान होता है और ज्ञानापरणके क्षयोपशमके अप्रकर्षसे एक आदि पदार्थो का ज्ञान होता है। बहु और बहुविधिमें भेद-एक प्रकारके पदार्थोंको बहु और बहुत प्रकारके पदार्थोंको बहुविध कहते हैं। उक्त और निःसृत में भेद-दूसरे के उपदेशपूर्वक जो ज्ञान होता है वह उक्त है और परोपदेशके बिना स्वयं ही जो ज्ञान होता है वह निःसृत है।। कोई क्षिप्रनिःसृत'-ऐसा पाठ मानते हैं। इसका अर्थ यह है कि कोई व्यक्ति कानसे शब्दको सुनकर ही यह शब्द मोरका है अथवा मुर्गेका है यह समझ लेता है। कोई शब्दमात्रका ही ज्ञान कर पाता है। इनमें यह मयूरका ही शब्द है अथवा मुर्गका हो शब्द है इस प्रकारका निश्चय हो जाना निःसृत है। ध्रुवावग्रह और धारणामें भेद-प्रथम समयमें जैसा अवग्रह हुआ है द्वितीयादि समयों में उसी रूप में वह बना रहे, उससे कम या अधिक न हो इसका नाम ध्रु वावग्रह है। ज्ञानावरणकर्मके श्योपशमकी विशुद्धि और संक्लेशके मिश्रणसे कभी अल्पका अवग्रह, कभी बहुतका अवग्रह, इस प्रकार कम या अधिक होते रहना अध्र वावग्रह है, किन्तु धारणा गृहीत अर्थों को कालान्तर में नहीं भूलनेका कारण होती है। धारणासे ही कालान्तर में किसी वस्तुका स्मरण होता है । इस प्रकार इनमें अन्तर है । For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy