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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १।१३] प्रथम अध्याय ३४७ यहाँ ज्ञानका अधिकार (प्रकरण ) होनेसे अवधिदर्शन और केवलदर्शन प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हो सकते । और 'सम्यक्' शब्दका अधिकार होनेसे विभङ्गज्ञान (कुअवधि) भी प्रमाण नहीं हो सकता है। विभङ्गज्ञान मिथ्यात्वके उदयके कारण अर्थो का विपरीत बोध करता है। जो लोग इन्द्रिय जन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं उनके यहाँ सर्वज्ञ को प्रत्यक्षज्ञान नहीं हो सकेगा । सर्वज्ञका ज्ञान इन्द्रियपूर्वक नहीं होता है। यदि सर्वज्ञका ज्ञान भी इन्द्रियपूर्वक होने लगे तो वह सर्वज्ञ ही नहीं हो सकता है, क्योंकि इन्द्रियों के द्वारा सब पदार्थोंका ज्ञान असंभव है। यदि सर्वज्ञके मानस प्रत्यक्ष माना जाय तो मनका उपयोग भी क्रमिक होता है अतः सर्वज्ञत्वका अभाव हो जायगा। आगमसे • पदार्थों को जानकर भी कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता; क्योंकि आगम भी प्रत्यक्षज्ञानपूर्वक होता है । पदार्थो का प्रत्यक्ष किए बिना आगम प्रमाण नहीं हो सकता। योगिप्रत्यक्षको यदि इन्द्रियजन्य स्वीकार किया जाता है तो सर्वज्ञाभावका प्रसङ्ग ज्योंका त्यों बना रहता है । अतः इन्द्रियजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष मानना ठीक नहीं है । प्रत्यक्ष वही है जो केवल आत्माकी सहायतासे उत्पन्न हो। मतिज्ञानके विशेषमतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ॥ १३ ।। मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध इत्यादि मतिज्ञानके नामान्तर हैं। यद्यपि इनमें स्वभावकी अपेक्षा भेद है, लेकिन रूढ़िसे ये सब मतिज्ञान ही कहे जाते हैं। जैसे इन्दन (क्रीडा) आदि क्रियाकी अपेक्षासे भेद होनेपर भी एक ही शचीपति ( इन्द्र) के इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि भिन्न भिन्न नाम हैं । मति, स्मृति आदि ज्ञान मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे होते हैं, इनका विषय भी एक ही है और श्रुत आदि ज्ञानों में ये भेद नहीं पाये जाते हैं, अतः ये सब मतिज्ञानके ही नामान्तर हैं। पाँच इन्द्रिय और मनसे जो अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाज्ञान होता है वह मति है । स्वसंवेदन और इन्द्रियज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहे जाते हैं। तत् (वह) इस प्रकार अतीत अर्थके स्मरण करनेको स्मृति कहते हैं। 'यह वही है', 'यह उसके सदृश है' इस प्रकार पूर्व और उत्तर अवस्थामें रहनेवालो पदार्थकी एकता, सदृशता आदिके ज्ञानको संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान ) कहते हैं। किन्हीं दो पदार्थामें कार्यकारण आदि सम्बन्धके ज्ञानको चिन्ता ( तर्क ) कहते हैं । जैसे अग्निके बिना धूम नहीं होता है, आत्माके बिना शरीर व्यापार, वचन आदि नहीं हो सकते हैं । इस प्रकार विचारकर उक्त पदार्थो में कार्यकारण सम्बन्धका ज्ञान करना तर्क है । एक प्रत्यक्ष पदार्थको देखकर उससे सम्बन्ध रखनेवाले अप्रत्यक्ष अर्थका ज्ञान करना अभिनिबोध ( अनुमान) है जैसे पर्वतमें धूमको देखकर अग्निका ज्ञान करना । आदि शब्दसे प्रतिभा, बुद्धि, मेधा आदिका ग्रहण करना चाहिये। दिन या रात्रिमें कारणके बिना ही जो एक प्रकारका स्वतः प्रतिभास हो जाता है वह प्रतिभा है। जैसे प्रातः मुझे इष्ट वस्तुकी प्राप्ति होगी या कल मेरा भाई आयगा आदि । अर्थको ग्रहण करनेकी शक्ति को बुद्धि कहते हैं । और पाठको ग्रहण करनेकी शक्तिका नाम मेधा है। कहा भी है-आगमाश्रित ज्ञान मति है । बुद्धि तत्कालीन पदार्थका साक्षात्कार करती है ज्ञ.अतीतको तथा मेधा त्रिकालवर्ती पदार्थो का परिज्ञान करती है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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