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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७] प्रथम अध्याय ३३५ उत्तर-मिथ्यात्वपूर्वक उपशमसम्यग्दर्शनयुक्त प्राणीका मरण नहीं होता किन्तु वेदकपूर्वक उपशमसम्यग्दर्शनयुक्त प्राणीका तो मरण होता है। क्योंकि वेदक पूर्वक उपशमसम्यग्दर्शनयुक्त जीव श्रेणीका आरोहण करता है और श्रेण्यारोहण के समय चारित्रमोहके 'उपशम के साथ मरण होनेपर अपर्यातक देवों के भी उपशम सम्यग्दर्शन होता है। विशेष-भवनवासी, व्यन्तर और सोनियी देश तथा बिन्यों के झायिक नहीं होता। सांधर्म और शान कल्पवासी वियों के भी नायिका नहीं होता। सौधर्म और शान कल्पवासी पर्यात देवियों के ही उपशन और बायोपशामिक सम्यग्दर्शन होता है। न्द्रियोंकी अपेक्षासे संजी पञ्चेन्द्रियके तीनों लम्यन्दर्शन होते हैं । एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रिय पर्यन्त कोई सम्यग्दर्शन नहीं होता ! कायकी अपेक्षा प्रकायिकों के नीनों की सम्पर्शन होते हैं। स्थावरमाथिकके एक भी नहीं। बागकी अॅाना जमले जोश के तीनों को सम्बग्दर्शन होते हैं : अयोगियों के क्षाविक ही होता है। बेदकी अक्षा तीनों बदाम तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं । अवेद अवस्थामें अपशामिक और शायिक होता है। कपाय को अपेक्षा चारों कषायों में नोनों ही साम्प्रदर्शन होते है । अपाय अवस्थामें औपशामक और क्षायिक होते । ___ ज्ञानकी अपेक्षा मति, भूत, अनार और न वज्ञानियोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं। केवलीके क्षायिक ही होता है। संयमकी अपेक्षा सामायिक और छेनोपस्थापना संबममें तीनों ही होते हैं। परिहारविशुद्धि संयम में वेदक और क्षायिक हो होता है । प्रश्न-परिहारविशुद्धि संयसमें उपशमसम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता ? उत्तर-मनःपर्यय, परिहारविशुद्धि, औपमिकसम्यक्त्व और आहारकऋदि इनमेसे एकके होनेपर अन्य तीन नहीं होते। विशेष यह है कि मनापर्ययके साथ मिथ्यात्वपूर्वक औषशनिकका निषेध हे वेदकपूर्वक का नहों। कहा भी है "मनःपर्यय, परिहारविशुद्धि, उपशमसम्यक्त्व और आहारक आहारकनिश्र इनमेंसे एकके होनेपर शेष नहीं होते।" सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातसंयम में औपशनिक और क्षाधिक होता है । संयतासंगत और असंयतों के तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं। दर्शनकी अपेक्षा चक्षुःदर्शन, चक्षुःदर्शन और अवधिदर्शन में तीनों ही होते हैं। केवलदर्शन में क्षायिक ही होता है। लेश्याकी अपेक्षा छहों लेश्याओं में तीनों ही होते हैं। लेश्यावस्थाम शाचिक ही। भव्यत्वकी अपेक्षा गव्योंके तीनों ही होते हैं। भव्यों के एक भी नहीं। लम्यात्वकी अपेक्षासे अपनी-अपनी अपेक्षा तीनों सम्यन्दर्शन होते हैं। संज्ञाकी अपेक्षा संजियों के तीनों ही होते हैं। अमंजियोंके एक भी नहीं। सज्ञी और असंज्ञी दोनों अवस्थाओंसे जो रहित हैं उनके क्षाविक ही होता है। आहारकी अपेक्षा आहारकोंके भी तीनों ही होते हैं। छनस्थ अनाहारकांके भी तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं। समुद्धातप्राप्त केवलीके क्षायिक ही होता है। साधनके दो भेद हैं-अभ्यन्तर और बाह्य ! सम्यग्दर्शनका अन्तरङ्ग साधन दशनमोह का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम है। बाह्यसाधन प्रथम, द्वितीय और तृतीय नरक में For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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