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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वार्थरत्ति हिन्दी-सार इस पञ्चम कालमें गणधरदेवके समान श्रीनिर्ग्रन्थाचार्य उमास्वामि भट्टारकसे भव्यवर द्वैयाकने प्रश्न किया कि-भगवन् , आत्मा का हित क्या है ? उमास्वामि भट्टारक द्वैयाक भव्यके प्रश्नका 'सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रके द्वारा प्राप्त होने वाला मोक्ष आत्माका हित है' यह उत्तर देनेके पहिले इष्टदेवको नमस्कार कर मङ्गल करते हैं-- "मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥" आत्माके ज्ञानादि गुणोंको घातने वाले ज्ञानावरणादि कर्मोंका भेदन करके जो समस्त तत्त्व अर्थात् मोक्षोपयोगी पदार्थों के पूर्णज्ञाता हैं, तथा जिनने मोक्षमार्गका नेतृत्व किया है उन परमात्मा को उक्तगुणों की प्राप्तिके लिए नमस्कार करता हूं। द्वैयाक ने पूंछा कि मोक्षका स्वरूप क्या है ? उमास्वामि भट्टारकने कहा—समस्त कर्ममलोंसे रहित आत्माकी शुद्ध अवस्थाका नाम मोक्ष है । इस अवस्थामें आत्मा स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकारके शरीरोंसे रहित हो अशरीरी हो जाता है। अपने स्वाभाविक अनन्तज्ञान निर्बाध अनन्त सुख आदि गुणोंसे परिपूर्ण हो चिदानन्द स्वरूप हो जाता है। यह पाल्माकी अन्तिम विलक्षण अवस्था है। यह शुद्ध दशा सदा एकसी बनी रहती है। इसका कभी विनाश नहीं होता। यह दशा इन्द्रियज्ञानका विषय न होनेसे अत्यन्त परोक्ष है, इस लिए विभिन्न वादी मोक्षके स्वरूपकी अनेक प्रकारसे कल्पना करते हैं। जैसे (१) सांख्यका मत है कि-पुरुषका स्वरूप चतन्य है । बान चैतन्यसे पृथक् वस्तु है । ज्ञान प्रकृतिका धर्म है, यही ज्ञेय अर्थात् पदार्थों को जानता है । चैतन्य पदार्थोंको नहीं जानता । मोक्ष अवस्थामें आत्मा चैतन्य स्वरूप रहता है ज्ञान स्वरूप नहीं।। इस मतमें ये दूषण हैं-ज्ञानसे भिन्न चैतन्य कोई वस्तु नहीं है। चैतन्य ज्ञान बुद्धि आदि पर्यायवाची हैं इनमें अर्थभेद नहीं है । स्व तथा पर पदार्थांका जानना चैतन्यका स्वरूप है। यदि चैतन्य अपने स्वरूप तथा पर पदार्थोंको नहीं जानता तो वह गधेके सींगकी तरह असत् ही हो जायगा। निराकार अर्थात् ज्ञेयको न जानने वाले चैतन्यकी कोई सत्ता नहीं है। (२) वैशेपिक-बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन आत्माके नव विशेष गुणोंके अत्यन्त उच्छेद होनेको मोक्ष कहते हैं। ये विशेषगुण आत्मा और मनके संयोगसे उत्पन्न होते है। चूंकि मोक्षमें आत्माका मनसे संयोग नहीं रहता अतः इन गुणोंका अत्यन्त उच्छेद हो जाता है For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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