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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वार्थवृत्ति प्रस्तावना आदिको देखकर अविकृत बने रहना चाहिए। चिरतपस्या करनेपर भी यदि कोई ऋद्धि सिद्धि प्राप्त न हो तो भी तपस्याके प्रति अनादर नहीं होना चाहिए। कोई सत्कार पुरस्कार करे तो हर्ष, न करे तो खेद नहीं करना चाहिए। यदि तपस्यासे कोई विशेष ज्ञान प्राप्त हो गया हो तो अहंकार और प्राप्त न हुआ हो तो खेद नहीं करना चाहिए। भिक्षावृत्तिसे भोजन करते हुए भी दीनताका भाव आत्मामें नहीं आने देना चाहिए। इस तरह परीषहजयसे चरित्रमें दृढ़ निष्ठा होती है और इससे आस्रव रुककर संवर होता है। चारित्र-चारित्र अनेक प्रकारका है। इसमें पूर्ण चारित्र मुनियोंका होता है तथा देश चारित्र श्रावकोंका। मुनि अहिंसा सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन व्रतोंका पूर्णरूपमें पालन करता है तथा श्रावक इनको एक अंशसे । मुनियोंके महावत होते हैं तथा श्रावकोंके अणुव्रत । इनके सिवाय सामायिक आदि चारित्र भी होते हैं । सामायिक-समस्त पापक्रियाओंका त्याग, समताभावकी आराधना । छेदोपस्थापना--यदि व्रतोंमें दूषण आ गया हो तो फिरसे उसमें स्थिर होना । परिहारविशुद्धि--इस चारित्रवाले व्यक्तिके शरीरमें इतना हलकापन आ जाता है जो सर्वत्र गमन करते हुए भी इसके शरीरसे हिंसा नहीं होती । सूक्ष्म साम्पराय--अन्य सब कषायोंका उपशम या क्षय होनेपर जिसके मात्र सूक्ष्म लोभकषाय रह जाती है उसके सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र होता है । यथाख्यातचारित्र--जीवन्मुक्त व्यक्तिके समस्त कषायोंके क्षय होनेपर होता है। जैसा आत्माका स्वरूप है वैसा ही उसका प्राप्त हो जाना यथाख्यात है। इस तरह गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेक्षा परीषहजय और चारित्र आदिकी किलेबन्दी होनेपर कर्मशत्रुके प्रवेशका कोई अवसर नहीं रहता और पूर्णसंवर हो जाता है। निर्जरा-गुप्ति आदिसे सर्वतः संवृत व्यक्ति आगामी कर्मोके आत्रबको तो रोक ही देता है साथ ही साथ पूर्वबद्ध कर्मोकी निर्जरा करके क्रमशः मोक्षको प्राप्त करता है। निर्जरा झड़नेको कहते हैं। यह दो प्रकारकी होती है--(१) औपक्रमिक या अविपाक निर्जरा (२) अनौपक्रमिक या सविपाक निर्जरा। तप आदि साधनाओंके द्वारा कर्मोको बलात् उदयमें लाकर बिना फल दिये ही झड़ा देना अविपाक निर्जरा है। स्वाभाविक क्रमसे प्रति समय कर्मोका फल देकर झड़ जाना सविपाक निर्जरा है। यह सबि. पाक निर्जरा प्रतिसमय हर एक प्राणीके होती ही रहती है और नूतन कर्म बंधते जाते हैं। गुप्ति समिति और खासकर तपरूपी अग्निके द्वारा कर्मोको उदयकालके पहिले ही भस्म कर देना अविपाक निर्जरा या औपक्रमिक निर्जरा है। सम्यग्दृष्टि, श्रावक, मुनि, अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करनेवाला, दर्शनमोहका क्षय करनेवाला, उपशान्तमोह गुणस्थानवाला, क्षपकश्रेणीवाले, क्षीणमोही और जीवन्मुक्त व्यक्ति क्रमश: असंख्यात गुणी कर्मोकी निर्जरा करते हैं। 'कर्मोंकी गति टल नहीं सकती' यह एकान्त नहीं है। यदि आत्मामें पुरुषार्थ हो और वह साधना करे तो समस्त कर्मोंको अन्तर्महुर्तमें ही नष्ट कर सकता है । "नामुक्त क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।' अर्थात सैकड़ों कल्पकाल बीत जानेपर भी बिना भोगे कर्मोका क्षय नहीं हो सकता-यह मत जैनोंको मान्य नहीं । जैन तो यह कहते है कि "ध्यानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते क्षणात ।" अर्थात् ध्यानरूपी अग्नि सभी कर्मोको क्षण भरमें भस्म कर सकती है। ऐसे अनेक दृष्टान्त मौजूद हैं--जिन्होंने अपनी प्राक्साधनाका इतना बल प्राप्त कर लिया था कि साधुदीक्षा लेते ही उन्हें कैवल्य लाभ हो गया । पुरानी वासनाओंको और राग द्वेष आदि कुसंस्कारोंको नष्ट करनेका एकमात्र मुख्य साधन है ध्यान अर्थात् चित्तवृत्तियोंका निरोध करके उसे एकाग्र करना। इस प्रकार भगवान् महावीरने बन्ध (दुःख)बन्धके कारण (आस्रव) मोक्ष और मोक्षके कारण-संवर निर्जरा इन पांच तत्त्वोंके साथ ही साथ आत्मतत्त्वके ज्ञानकी भी खास आवश्यकता बताई जिसे बन्धन और मोक्ष होता है तथा उस अजीव तत्वके ज्ञानकी जिसके कारण अनादिसे यह जीव बन्धनबद्ध हो रहा है। मोक्षके साधन--वैदिक संस्कृति विचार या ज्ञानसे मोक्ष मानती है जब कि श्रमण संस्कृति आचार अर्थात् चारित्रको मोक्षका साधन स्वीकार करती है । यद्यपि वैदिक संस्कृतिमें तत्त्वज्ञानके साथ ही साथ वैराग्य और संन्यासको भी मुक्तिका अंग माना है पर वैराग्य आदि का उपयोग तत्त्वज्ञानकी पुष्टिमें For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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