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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ तत्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना अनेक प्रकारके ब्रह्मचर्यत्रास ध्यान आदिसे साध्य होनेके कारण दुर्ग्राह्य होगा। अतः मोक्ष अवस्थामें शुद्ध चित्त सन्ततिकी सता मानना ही उचित है। तत्त्वसंग्रह पंजिका ( पृ० १०४ ) आचार्य कमलशीलने संसार और निर्वाणका प्रतिपादक यह प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है---- "चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितम् ।। तदेव तैविनिर्मुक्त भवान्त इति कथ्यते ॥" अर्थात रागादिक्लेश-वासनामय चित्तको संसार कहते हैं और जब वही चित्त रागादि क्लेश वासनाओंसे मुक्त हो जाता है तब उसे भवान अर्थात् निर्वाण कहते हैं । यह जीवन्मुक्तिका वर्णन नहीं है किन्तु निर्वाणका। इस श्लोकमें प्रतिपादित संसार और मोक्षका स्वरूप ही युक्तिसिद्ध और अनुभवगम्य है । चित्तकी रागादि अवस्था संसार है और उसकी रागादिरहितता मोक्ष । अतः सर्वकर्मक्षयसे प्राप्त होनेवाला स्वात्मलाभ ही मोक्ष है । आत्माका अभाव या चैतन्यके अभावको मोक्ष नहीं कह सकते । रोगकी निवृत्तिका नाम आरोग्य है न कि रोगी की ही निवृत्ति या समाप्ति। स्वास्थ्यलाभ ही आरोग्य है न कि मृत्यु । मोक्षके कारण--१ संवर-संवर रोकनको कहते है। सुरक्षाका नाम संवर है। जिन द्वारोंसे कर्मोंका आस्रव होता था उन द्वारोंक। निरोध कर देना संवर कहलाता है। आस्रवका मूल कारण योग है। अतः योगनिवृत्ति ही मूलतः संवरके पद पर प्रतिष्ठित हो सकती है। पर,मन वचन कायकी प्रवृत्तिको सर्वथा रोकना संभव नहीं है। शारीरिक आवश्यकताओंकी पूर्ति के लिए आहार करना मलमत्रका विसर्जन करना चलना फिरना बोलना रखना उठाना आदि क्रियाएँ करनी ही पड़ती हैं । अतः जितने अंशोंमें मन वचन कायकी क्रियाओंका निरोध है उतने अंशको गुप्ति कहते हैं। गुप्ति अर्थात् रक्षा । मन वचन और कायकी अकुशल प्रवृत्तियोंसे रक्षा करना। यह गुप्ति ही संवरका प्रमुख कारण है। गुप्तिके अतिरिक्त समिति धर्म अनुप्रेक्षा परीषहजय और चारित्र आदिसे संबर होता है। समिति आदिमें जितना निवृत्तिका भाग है उतना संवरका कारण होता है और प्रवृत्तिका अंश शुभबन्धका हेतु होता है। समिति-- सम्यक प्रवृत्ति, सावधानीसे कार्य करना। ईर्या समिति-देखकर चलना। भाषा समितिहित मित प्रिय बचन बोलना। एषणा समिति-विधिपूर्वक निर्दोष आहार लेना। आदान-निक्षेपण समिति-देख शोधकर किसी भी वस्तुका रखना उठाना। उत्सर्ग समिति-निर्जन्तु स्थानपर मल मूत्रका विसर्जन करना। धर्म---आत्मस्वरूपमें धारण करानेवाले विचार और प्रवृत्तियाँ धर्म है। उत्तम क्षमा-क्रोधका त्याग करना। क्रोधके कारण उपस्थित होनेपर भी विवेकवारिसे उन्हें शान्त करना । कायरता दोष है और क्षमा गुण । जो क्षमा आत्मामें दीनता उत्पन्न करे वह धर्म नहीं। उत्तम मार्दव-मदुता, कोमलता, विनयभाव, मानका त्याग । ज्ञान पूजा कुल जाति बल ऋद्धि तप और शरीर आदिकी किंचित् विशिष्टताके कारण आत्मस्वरूप को न भूलना, इनका अहंकार न करना । अहंकार दोष है. स्वमान गुण है । उत्तम आर्जव--ऋजुता, सरलता, मन वचन कायमें कुटिलता न होकर सरलभाव होना। जो मनमें हो, तदनुसारी ही वचन और जीवन व्यवहारका होना। माया का त्याग-सरलता गुण है भोंदूपन दोष है। उत्तम शौच--शुचिता, पवित्रता, निर्लोभ वृत्ति, प्रलोभनमें नहीं फंसना। लोभ कषायका त्यागकर मनमें पवित्रता लाना। शौच गुण है पर बाह्य सोला और चौकापन्थ आदिके कारण छू छ करके दूसरों से घृणा करना दोष है। उत्तम सत्य--प्रामाणिकता, विश्वास परिपालन, तथ्य स्पष्ट भाषण । सच बोलना धर्म है परन्तु परनिन्दाके लिए दूसरेके दोषोंका ढिंढोरा पीटना दोष है । पर बाधाकारी सत्य भी दोष हो सकता है। उत्तम संयम-~-इन्द्रिय विजय, प्राणि रक्षण । पांचो इन्द्रियोंकी विषय प्रवृत्ति पर अंकुश रखना, निरर्गल प्रवृत्तिको रोकना, वश्येन्द्रिय होना । प्रणियोंकी रक्षाका ध्यान रखते हुए खान-पान जीवन व्यवहारको अहिंसाकी भूमिका पर चलाना। संयम गुण है पर भावशून्य बाह्यक्रियाकाण्डम का अत्यधिक आग्रह दोष है। उत्तम तप--इच्छानिरोध । मनकी आशा तृष्णाओंको रोककर For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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